Bareilly : किसी बादशाह के लिए नहीं लिखे कसीदे , इश्क-ए-रसूल में चली अहमद रजा की कलम

Amrit Vichar Network
Published By Monis Khan
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बरेली, अमृत विचार। इमाम अहमद रजा खां फाजिले बरेलवी यानी आला हजरत की कलम दीन की राह में ऐसी चली कि एक हजार से ज्यादा किताबें अरबी, उर्दू, फारसी जैसी भाषाओं में लिख डालीं। उनके फतवों की गूंज ऐसी फैली कि पूरी दुनिया में आज भी सुनाई दे रही है। मगर अपने फतवों से इतर इमाम अहमद रजा को जब भी मदीने की याद आई उन्होंने कलम उठाई और ऐसे कलाम लिखें, जिनकी मिसाल ढूंढे नहीं मिलती। सिर्फ उनके लिखे कलाम पढ़-पढ़कर न जाने कितने नातख्वां ने शोहरत हासिल की।

दरगाह आला हजरत के सज्जादानशीन मुफ्ती अहसन रजा कादरी बताते हैं कि, आला हजरत ने किसी अमीर, बादशाह, नवाब और हाकिम की तारीफ में गजल या कसीदे नहीं लिखे। जिस तरह अहमद रजा इमाम-ए-अहले सुन्नत हैं, उसी तरह उनके लिखे कलाम भी सुखन का इमाम हैं। आला हजरत का नातिया दीवान 'हदायके बख्शिश' इसका एक नजीर है। वह दूसरे शायरों की तरह सुबह से शाम तक शेर लिखने की तैयारी में मसरूफ नहीं रहते थे बल्कि जब नबी-ए-करीम की याद तड़पाती और इश्क-ए-रसूल का दर्द बेताब करता तो खुद-ब-खुद जुबान पर नातिया कलाम जारी हो जाते थे। उन्होंने लिखा..."ले रज़ा सब चले मदीने को, मैं न जाऊं अरे खुदा न करे।"

नबी के इश्क में डूबे मगर रखा तौहीद का ख्याल
कहा ये भी जाता है कि उन्होंने अपनी सारी जिंदगी पैगंबर-ए-इस्लाम की तारीफ लिखी लेकिन मुकम्मल ना हो सकी और फिर उन्होंने हैरान होकर नबी की शान में लिखा ‎सरवर कहूं कि "मालिक-ओ-मौला कहूं तुझे, ‎बाग-ए-खलील का गुल-ए-जेबा कहूं तुझे, ‎हैरां हूं मेरे शाह मैं क्या-क्या कहूं तुझे।" ‎लेकिन रजा ने खत्म-ए-सुकून इसपे कर दिया खालिक का बंदा खल्क का आका कहूं तुझे।" अब यहां अंदाजा लगाया जा सकता है कि आला हजरत कितने तौहीद (एकेश्वरवाद) परस्त थे, कि उन्होंने नबी को खल्क का आका कहा मगर साथ ही खालिक का बंदा कहकर अपने अकीदा-ए-तौहीद की हिफाजत की। दरगाह के मीडिया प्रभारी नासिर कुरैशी ने बताया कि आला हजरत की कलम में शरीयत का बड़ा एहतेराम देखने को मिलता है। नात लिखना उन्होंने कुरान से सीखा।

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