जिंदगी बदल देने वाले वांगचुक के आविष्कार
भारतीय इंजीनियर, नवप्रवर्तक और शिक्षा सुधारक सोनम वांगचुक ने अपने वैज्ञानिक और तकनीकी योगदानों के माध्यम से न सिर्फ लद्दाख, बल्कि दुनिया को कई बड़े आविष्कार दिए हैं। कहते यहां तक हैं कि थ्री ईडियट फिल्म में आमिर खान वाला किरदार फुंगसुक, वांगचुक से ही प्रेरित था। आइए आपको बताते हैं कि उन्होंने अपने आविष्कारों और खोजों से कैसे जिंदगी को आसान बनाया है।
लाई-फाई आधारित माउंटेन-टॉप लेजर 5G इंटरनेट
सोनम वांगचुक ने लाईफाई (लाइट फिडेलिटी) तकनीक का उपयोग करके लद्दाख में दुनिया का पहला माउंटेन-टॉप लाईफाई लेजर 5 जी इंटरनेट सिस्टम स्थापित किया। यह तकनीक प्रकाश (विशेष रूप से लेजर बीम) का उपयोग करके डेटा ट्रांसमिट करती है, जो पारंपरिक रेडियो आधारित टेलीकॉम टावरों का एक ऊर्जा-कुशल और पर्यावरण अनुकूल विकल्प है। इस सिस्टम ने पहाड़ी क्षेत्रों में इंटरनेट की पहुंच को संभव बनाया, जहां सामान्य टेलीकॉम सिग्नल बाधित हो जाते हैं।
इस सिस्टम में एक लेजर ट्रांसमीटर को पहाड़ की चोटी पर स्थापित किया जाता है, जो रेडियो सिग्नल को लेजर बीम में परिवर्तित करता है। यह लेजर बीम, जिसमें इंटरनेट सिग्नल छिपा होता है, 3.5 किलोमीटर दूर एक श्रपव टावर से ऑप्टिकल सिग्नल प्राप्त करता है और इसे 10 किलोमीटर तक ट्रांसमिट कर सकता है, जिसमें 10 जीबीपीएस (गीगाबिट्स प्रति सेकेंड) की बैंडविड्थ होती है। रिसीवर इस सिग्नल को स्थानीय टेलीकॉम टावर या स्कूल जैसे स्थानों तक पहुंचाता है। कठोर हिमालयी परिस्थितियों में उपकरणों को सुरक्षित रखने के लिए वांगचुक ने पावर बैंक के लिए एक विशेष केसिंग डिजाइन की, जो आंतरिक तापमान को लगभग 15 डिग्री सेल्सियस पर बनाए रखती है।
खास बात यह है कि यह सिस्टम पारंपरिक टेलीकॉम टावरों की तुलना में बहुत कम ऊर्जा (केवल कुछ सौ वाट) का उपयोग करता है। वांगचुक ने दावा किया कि यह तकनीक सैटेलाइट्स, गूगल के बैलून या एमाजोन के सैटेलाइट्स जैसे समाधानों की तुलना में कम प्रदूषण और कम अंतरिक्ष कचरा पैदा करती है। पहाड़ों को अब बाधा के बजाय प्राकृतिक टावर के रूप में उपयोग किया जाता है, जिससे लद्दाख जैसे क्षेत्रों में इंटरनेट पहुंच संभव हुई। बताते चलें कि कोविड-19 महामारी के दौरान, जब ऑनलाइन शिक्षा की आवश्यकता बढ़ी, इस तकनीक ने स्कूलों और ग्रामीण क्षेत्रों में इंटरनेट उपलब्ध कराया। उनकी लाई-फाई आधारित माउंटेन-टॉप लेजर 5 जी इंटरनेट तकनीक ने दुर्गम क्षेत्रों में डिजिटल कनेक्टिविटी प्रदान की, जो भारत के डिजिटल इंडिया मिशन को समर्थन देता है।
कृत्रिम हिमनद-आइस स्तूप
वांगचुक ने लद्दाख में गर्मियों के दौरान पानी की कमी और किसानों की समस्याओं को देखा। पारंपरिक ग्लेशियर ऊंचाई पर होने के कारण जल्दी पिघल जाते हैं और पानी का उपयोग सीमित होता है। इस समस्या को हल करने के लिए उन्होंने एक ऐसी तकनीक विकसित की, जो पानी को निचले क्षेत्रों में लंबे समय तक उपलब्ध करा सके। वांगचुक ने जल संरक्षण के लिए एक अनूठी तकनीक, आइस स्तूप, विकसित की। यह कृत्रिम हिमनद (ग्लेशियर) हैं, जो सर्दियों में पानी को बर्फ के शंकु के रूप में जमा करते हैं।
गर्मियों में यह बर्फ धीरे-धीरे पिघलकर खेती और सिंचाई के लिए पानी उपलब्ध कराती है। एक आइस स्तूप 10 हेक्टेयर जमीन की सिंचाई करने में सक्षम है, जिसने लद्दाख जैसे शुष्क क्षेत्रों में जल संकट को कम करने में मदद की। इस नवाचार को वैश्विक स्तर पर सराहना मिली और इसे जलवायु परिवर्तन से निपटने का प्रभावी समाधान माना जाता है। इस तकनीक का उद्देश्य जल संकट को कम करना, टिकाऊ खेती को बढ़ावा देना, जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करना और स्थानीय समुदायों को आत्मनिर्भर बनाना है।
सौर ऊर्जा आधारित तकनीक
वांगचुक ने पैसिव सोलर बिल्डिंग तकनीक विकसित की, जो लद्दाख जैसे ठंडे क्षेत्रों में ऊर्जा-कुशल इमारतें बनाने में मदद करती है। ये इमारतें सौर ऊर्जा का उपयोग करके गर्म रहती हैं और जीवाश्म ईंधन की आवश्यकता को समाप्त करती हैं। उनके द्वारा डिजाइन किया गया सीइसीएमओएल (स्टूडेंट्स एजूकेशनल एंड कल्चरल मूवमेंट ऑफ लद्दाख) परिसर पूरी तरह से सौर ऊर्जा पर चलता है, जो खाना पकाने, प्रकाश और तापन के लिए जीवाश्म ईंधन पर निर्भर नहीं है।
सेना के लिए सौर टेंट
वांगचुक ने भारतीय सेना के लिए सौर ऊर्जा से संचालित पीएसटी (पैसिव सोलर टेंट) विकसित किए, जो लद्दाख जैसे ठंडे और सीमावर्ती क्षेत्रों में सैनिकों के लिए गर्मी और ऊर्जा प्रदान करते हैं। ये टेंट ऊर्जा-कुशल और पर्यावरण अनुकूल हैं, जिससे सेना को कठिन परिस्थितियों में सहायता मिली। यह नवाचार न केवल सैनिकों के जीवन को आसान बनाता है, बल्कि पर्यावरण अनुकूल और लागत प्रभावी तरीके से राष्ट्रीय सुरक्षा को मजबूत करता है।
पर्यावरण संरक्षण और टिकाऊ खेती
वांगचुक ने लद्दाख में सैकड़ों हेक्टेयर बंजर जमीन को उपजाऊ बनाने में योगदान दिया। आइस स्तूप के माध्यम से पानी की उपलब्धता बढ़ाने के अलावा, उन्होंने टिकाऊ खेती के तरीके विकसित किए, जिससे हजारों पेड़ और बगीचे लगाए गए। यह लद्दाख के नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र को संरक्षित करने में महत्वपूर्ण रहा। वांगचुक ने लद्दाख की सैकड़ों हेक्टेयर बंजर जमीन को उपजाऊ बनाने में योगदान दिया। लद्दाख का शुष्क और ठंडा मरुस्थलीय क्षेत्र खेती के लिए चुनौतीपूर्ण है, लेकिन उनके प्रयासों से बंजर भूमि को हरित क्षेत्रों में बदला गया। वांगचुक ने हजारों पेड़ लगवाए, विशेष रूप से वे प्रजातियां, जो लद्दाख की कठोर जलवायु में जीवित रह सकती हैं, जैसे विलो और पॉपलर। ये पेड़ मिट्टी को स्थिर करते हैं और नमी बनाए रखने में मदद करते हैं। उन्होंने रासायनिक उर्वरकों के बजाय जैविक खेती के तरीकों को प्रोत्साहित किया, जो मिट्टी की उर्वरता को दीर्घकालिक रूप से बनाए रखता है।
शिक्षा सुधार के लिए तकनीकी दृष्टिकोण
सोनम वांगचुक ने 1988 में सीइसीएमओएल की स्थापना की, जो लद्दाख के ग्रामीण बच्चों को प्रैक्टिकल और पर्यावरण केंद्रित शिक्षा प्रदान करता है। उन्होंने पारंपरिक शिक्षा प्रणाली को चुनौती दी और प्रकृति, पर्यावरण और व्यावहारिक ज्ञान पर आधारित एक शैक्षिक मॉडल विकसित किया। उन्होंने पारंपरिक शिक्षा प्रणाली की कमियों को पहचाना और ऑपरेशन न्यू होप के तहत सरकारी स्कूलों में सुधार लाए।
उनके इन नवाचारी कार्यों के लिए उन्हें रमण मैग्सेसे पुरस्कार (2018) मिला, जिसे ‘एशिया का नोबेल पुरस्कार’ माना जाता है। इसके अलावा रोलेक्स अवॉर्ड फॉर एंटरप्राइज (2016), ग्लोबल अवॉर्ड फॉर सस्टेनेबल आर्किटेक्चर (2017) और अशोक फेलोशिप फॉर सोशल एंटरप्रेन्योरशिप (2002) से नवाजा गया।
