मेरा शहर मेरी प्रेरणा : सुरमा बरेली वाला...आंखों के रोगों में रामबाण

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Published By Monis Khan
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बरेली का सुरमा किसी पहचान का मोहताज नहीं। आंखें सुर्ख हो गई हों, पानी आ रहा हो, दर्द कर रही हों या अन्य परेशानी हो... सभी बीमारियों के उपचार में रामबाण माना जाने वाला बरेली का सुरमा दूर-दूर तक प्रसिद्ध है। भले ही अब इसे आंख संबंधी ड्रॉप और दवाइयों समेत नए-नए सौंदर्य प्रसाधनों से भारी चुनौती मिल रही हो। परंपरागत रूप से अभी भी लोगों का भरोसा सुरमा पर कायम है। बरेली में हाशम परिवार ने 1794 में सुरमा बनाना शुरू किया। 1971 में कारोबार संभालने वाले चौथी पीढ़ी के सदस्य एम हसीन हाशमी ने इसे देश-विदेश में मशहूर किया। अक्टूबर 2021 में उनकी मृत्यु के बाद सुरमा बनाने का कारोबार पांचवी पीढ़ी संभाल रही है।

इन रोगों में लाभकारी : यह आँखों को स्वस्थ रखता है। दृष्टि में सुधार करता है। आँखों को ठंडक और राहत देता है। इसका उपयोग दवा के रूप में भी किया जाता है। मोतियाबिंद, नाखूना, आंखों में जलन, आंख का जाला, पानी आना, लालिमा, पीलापन, कालेपानी जैसी समस्याओं में इसका उपयोग करते हैं। अलग-अलग रोग के लिए अलग-अलग सुरमा इस्तेमाल करते हैं। सुरमा ममीरा नंबर 777, सुरमा ममीरा 500, सुरमा ममीरा 555, सुरमा मोती, सुरमा गुलाब खास, सुरमी के अलावा कई अन्य तरह का सुरमा तैयार किया जाता है।  

उर्स के समय बढ़ जाती है मांग : बरेली में सुरमा रेलवे स्टेशनों से लेकर बस अड्डों, बाजारों, गली-मोहल्लों की दुकानों तक पर आसानी से मिल जाता है। बड़ा बाजार, किला रोड, कुतुबखाना, पुराना शहर, सेटेलाइट हर कहीं सुरमा बिकता है। आला हजरत के उर्स में आने वाले देश-विदेश के जायरीन बरेली की निशानी के तौर पर सुरमा खरीदकर ले जाते हैं।

गुणवत्ता ही पहचान : शावेज हाशमी कहते हैं कि सुरमा बनाने का सबसे बेहतरीन तरीका अपनाते हैं जिससे सुरमा बहुत असरदार हो जाता है। सुरमा बनाते वक्त उसकी सामग्री की गुणवत्ता से समझौता नहीं करते। इसीलिए बरेली का सुरमा पूरी दुनिया में पहचान बनाए हुए है। बरेली से करीब 10 किलो सुरमा प्रतिदिन सप्लाई हो रहा है। वह बताते हैं कि उत्तर प्रदेश के अलावा महाराष्ट्र, बिहार, मध्य प्रदेश, दिल्ली समेत कई राज्यों में बरेली के सुरमा के कद्रदान हैं। पश्चिम बंगाल में इसकी मांग न के बराबर हैं क्योंकि वहां सुरमा का चलन नहीं है।

ऐसे बनता है सुरमा
करीब 230 सालों से चले आ रहे कारोबार को संभाल रहे पांचवीं पीढ़ी के शावेज हाशमी बताते हैं कि सुरमा बनाने के लिए सऊदी अरब, मिस्र से एक खास पत्थर कोहिनूर मंगाया जाता है। पत्थर को छह महीने गुलाब जल और सौंफ के पानी में डुबोकर रखा जाता है। पत्थर को सुखाकर पीसा जाता है। इसकी 11-12 लेयर उतारी जाती हैं। आखिर में ऐसा हो जाता है कि उंगलियों के पोरों पर भी महसूस न हों। अंतिम चरण में, इसमें सोने, चांदी और बादाम का अर्क मिलाया जाता है। इसमें गुलाबजल, कपूर, ममीरा, पीपल, सौंफ आदि यूनानी एवं आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियां भी शामिल की जाती हैं। आखों की अलग अलग बीमारियों के हिसाब से सुरमा तैयार किया जाता है। बताया कि दिन भर में एक आदमी एक-सवा किलो पत्थर पीस पाता है। बाकरगंज में 25 परिवार वर्षों से सुरमा पीसने के काम में लगे हैं। वह बताते हैं कि सुरमा को ड्रॉप में भी लाने का प्रयास कर रहे हैं।
 

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