पाताल भुवनेश्वर:   रहस्यमय पाताल लोक की दुनिया 

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Published By Anjali Singh
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प्रकृति के जितने करीब जाओ, उतना ही वह नए रूप में हमारे सामने आती है। बात उतराखंड की हो, तो इस देवभूमि में अनेक रहस्यमय स्थान है, जिनके दर्शन आपको चकित मंत्रमुग्ध कर देंगे। ऐसा ही एक स्थान कुमाऊं मंडल के पिथौरागढ़ जनपद में गंगोलीहाट कस्बे के समीप भुवनेश्वर गांव में है। यह है पाताल भुवनेश्वर गुफा। प्रकृति का एक अनबुझ रहस्य, जिसके लोक में पहुंचकर युगों-युगों का इतिहास एक साथ प्रकट हो जाता है। गुफा के भीतर लगभग उबड़-खाबड़, टेढे मेढ़े पत्थरों पर पैर टिकाकर 84 सीढ़ियों से होकर गुजरते हुए आप पाताल लोक मे पहुंच जाते हैं। अंदर की अद्भुत दुनिया रोमांचित कर देती है। छोटी बड़ी विभिन्न देवी-देवताओं व पशु पक्षियों के आकार की शिलाएं। एक ऐसा रचना संसार, जिसकी बाहर रहते आपने कभी कल्पना भी नहीं कि होगी। धरती के भीतर बड़ी गुफा जो कई भागों में बंट जाती है। बीच में मैदानी हिस्से भी फैले हुए हैं। गुफा के रास्ते के दोनों ओर जंजीर लगाई गई है, जिसे पकड़कर यात्री आते-जाते हैं। गुफा में जाने के लिए फीस भी रखी गई है। - दीपक नौगाई स्वतंत्र लेखक , हल्द्वानी 

भारतीय पुरातत्व विभाग के अधीन

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स्कंद पुराण के 103 वें अध्याय में पाताल भुवनेश्वर गुफा का वर्णन है, जिसमें व्यास जी ने कहा है कि मैं एक ऐसी जगह का वर्णन करता हूं, जिसके पूजन करने के संबंध मे तो कहना ही क्या, जिसका स्मरण और स्पर्श मात्र करने से सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। वह सरयू रामगंगा के मध्य पाताल भुवनेश्वर है। वर्ष 2007 से यह गुफा भारतीय पुरातत्व विभाग के अधीन है। भुवनेश्वर गांव निवासी स्वर्गीय मेजर समीर कोतवाल की स्मृति में गांव से गुफा की ओर जाने वाले मार्ग में बने प्रवेश द्वार को ‘समीर द्वार’ नाम दिया गया है। मेजर समीर 28 अगस्त 1999 को आसाम में उग्रवादियों से लड़ते हुए शहीद हुए थे। द्वार के बगल में मेजर की प्रस्तर प्रतिमा भी स्थापित है। 

पौराणिक महत्व कहते हैं कि इस अद्भुत गुफा के दर्शन त्रेतायुग में अयोध्या के राजा त्रृतुपूर्ण ने पहली बार किया था। राजा चौपड़ खेलने के बहुत शौकीन थे। उनके मित्र राजा नल भी इस खेल के महारथी थे। पर एक बार वे इस खेल में अपनी पत्नी दमयंती को हार गए। राजा नल इस हार से बहुत शर्मिंदा हुए। वे राजा त्रृतुपुर्ण को साथ लेकर हिमालय की यात्रा पर निकल पड़े। एक दिन घने जंगल में उन्हें असाधारण हिरण दिखा। राजा नल ने कहा इस हिरण को जिंदा पकड़ना है। दोनों उसे पकड़ने के लिए उसके पीछे लग गए। हिरण का पीछा करते हुए वे भुवनेश्वर गांव जा पहुंचे। शाम हो गई और हिरण भी कही दिखलाई नहीं दिया। राजा रास्ता भटक गए। रात में उन्हें स्वप्न हुआ और आवाज सुनाई दी- ‘तुम क्षेत्रपाल देवता की तपस्या करो, वही तुम्हे रास्ता बताएंगे।’ राजा तपस्या करने लगे। कुछ दिनों बाद क्षेत्रपाल ने दर्शन दिए और कहा कि इस स्थान पर एक बड़ी सुरंग है, जहां कई गुफाएं हैं और जहां कण-कण में भगवान शिव निवास करते हैं। क्षेत्रपाल ने राजा को इस दिव्य लोक में पहुंचा दिया।

गुफा में चौपड़ की आकृति  

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यह भी माना जाता है कि अपने अज्ञात वास मे पांडव भी यहां आए थे। उन्होंने कुछ समय इस गुफा में वास किया था। गुफा के भीतर चौपड़ की आकृति भी बनी हुई है। 822 ई. में अपनी दिग्विजय यात्रा के दौरान आदि गुरु शंकराचार्य भी यहां आए। उन्होंने गुफा के अंदर एक जगह पर तांबे का शिवलिंग स्थापित किया। गुफा में जाने वाले श्रृद्धालु इस शिवलिंग की पूजा अर्चना करते हैं।

भुवनेश्वर गांव से कुछ ही दूर देवदार के घने वन के मध्य स्थित है- पाताल भुवनेश्वर गुफा। गुफा का प्रवेश द्वार लगभग चार फिट लंबा और डेढ फिट चौड़ा है। अत्यंत संकरी, फिसलनदार गुफा में टेढे-मेढ़े पत्थरों की सीढ़ी पर सावधानी से साकंल पकड़कर तीस फिट नीचे उतरना पडता है। एक बार में एक ही व्यक्ति उतर पाता है। उतरते ही नीचे एक बड़े मैदान मे आप खुद को पाते हैं, जहां से तीन ओर को लंबी लंबी सुरंगें चली जाती हैं। धरती के भीतर एक अनोखी दुनिया, जिसकी आपने कभी कल्पना भी नहीं की होगी। यहां चट्टानों मे प्राकृतिक कलाकृतियां है, जिन्हें पौराणिक कथाओं व मिथकों से जोड़ा गया है। गाइड बताता है कि आप शेषनाग के शरीर की हड्डियों पर चल रहे हैं और आपके सिर के ऊपर शेषनाग का बना है। सुनते ही रौंगटे खड़े हो जाते हैं। गहराई से देखेंगे तो आप वास्तव में महसूस करेंगे कि कुदरत द्वारा तराशे पत्थरों मे नाग बन फैलाए है। फन के दाएं तरफ ऐरावत हाथी विराजमान हैं। जमीन मे बिल्कुल झुककर भूमि से चंद इंच की दूरी पर चट्टानों में हाथी के तराशे हुए पैरों को देखकर आपको मानना ही पड़ेगा कि आप जो सुन रहे हैं वो सच है। 

रोमांचक दृश्य  

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कुछ आगे बढ़े तो आप उस जगह पहुंच जाते हैं, जिसके विषय में कहा जाता है कि शिवजी ने गणेश जी का कटा हुआ मस्तक यही पर रखा था। गणेशजी के कटे मस्तक शिलारुपी प्रतीक के ठीक ऊपर 108 पुंखुडियों वाला शवाष्टक दल ब्रहमकमल सुशोभित हैं। इस ब्रह्मकमल से पानी की बूंदे गणेश जी के मस्तक पर टपकती है। मुख्य बूंद आदिगणेश के मुख में गिरती हुई दिखाई देती है। जनमेजय के नाग यज्ञ का हवन कुंड भी गुफा के भीतर है। कहा जाता है कि अपने पिता राजा परीक्षित को श्राप मुक्त करने के लिए जनमेजय ने सारे नाग मारकर हवन कुंड में जला दिए थे, लेकिन तक्षत नामक नाग बच निकला था, जिसने बाद में बदला लेते हुए परीक्षित को डसकर मौत के घाट उतार दिया था। नाग यज्ञ कुंड के ऊपर शिला पर इस नाग का चित्र उभरा हुआ देख सकते हैं।
     
एक जगह गुफा की छत पर गाय के थन की आकृति नजर आती है। यह कामधेनु गाय का स्तन है। आगे बढ़े तो एक मुड़ी गर्दन वाला गरुड़ एक कुंड के ऊपर बैठा दिखाई देता है। लोकश्रुति है कि शिवजी ने इस कुंड को अपने नागों के पानी पीने के लिए बनाया था। इसकी देखरेख गरुड़ के हाथ में थी, लेकिन जब गरुड़ ने ही इस कुंड से पानी पीने की कोशिश की तो शिवजी ने गुस्से में उसकी गरदन मोड़ दी और उसे श्राप देकर जड़वत बना दिया।

गुफा में एक स्थान पर शिवजी का मनोकामना कुंड भी है। मान्यता है कि इसके बीच बने छेद से धातु की कोई चीज पार करने पर मनोकामना पूर्ण होती है। उसके साथ कमली बिछी है और उसके नीचे बाघंबर बिछा है। वहीं पर पाताल भैरवी भी है, जो मुंडमाला पहने खड़ी हैं। मान्यता चाहे कुछ भी हो पर एकबारगी गुफा में बनी आकृतियों को देख लेने के बाद उनसे जुड़ी कथाओं पर भरोसा किए बिना नहीं रहा जाता। आश्चर्य यह है कि जमीन के इतने अंदर होने के बावजूद यहां घुटन महसूस नहीं होती अपितु शांति का अनुभव होता है। दूर-दूर से सैलानी इस अद्भुत गुफा को देखने आते हैं। कुछ श्रृद्धा से, कुछ रोमांच के अनुभव के लिए तो कुछ शांति की तलाश में।