संपादकीय:निर्णय से नकार तक

Amrit Vichar Network
Published By Monis Khan
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संचार साथी ऐप को अचानक वापस लेने का निर्णय कई राजनीतिक, तकनीकी और सामाजिक प्रश्न उठाता है। सरकार ने इससे पहले इसे मोबाइल फ़ोन में अनिवार्य रूप से शामिल कराने की कोशिश की, चाहे उपभोक्ताओं के माध्यम से या हैंडसेट कंपनियों के जरिए, लेकिन दबाव बढ़ते ही इसे वापस लेना बताता है कि सरकार विपक्ष के आरोपों से ज्यादा सार्वजनिक स्वीकार्यता को लेकर असहज हो गई थी। सबसे बड़ा सवाल यह है कि जब विश्व की कोई भी सरकार इस तरह के ऐप को प्री-इंस्टॉल करने की बाध्यता नहीं बनाती, तो भारत को इतनी गहन चिंता क्यों हुई? 

साइबर अपराध, डिजिटल फ्रॉड और मोबाइल चोरी की समस्या महत्वपूर्ण अवश्य है, लेकिन इन्हें हल करने के लिए दुनिया भर में स्वैच्छिक उपकरण अपनाए जाते हैं, न कि बाध्यकारी ऐप। सरकार यह समझा न सकी कि यह कदम जनहित में है, न ही यह कि बाध्यकारी इंस्टॉलेशन नागरिकों की सुरक्षा के लिए अनिवार्य क्यों है। यदि सरकार समय रहते ऐप की तकनीकी संरचना, डेटा सुरक्षा प्रोटोकॉल और निजता-संरक्षण की गारंटी जनता के साथ साझा करती, तो शायद स्थिति अलग होती। 

पारदर्शिता की इस कमी ने जनता में संदेह बढ़ाया कि कहीं यह निगरानी उपकरण तो नहीं। विपक्ष ने इसी बिंदु को पकड़ा और जासूसी के आरोपों को उछाला। सरकार ने इससे पहले भी कई बार अपने फैसलों पर यू-टर्न लिया है। नीति-निर्माण में लचीलेपन को लोकतांत्रिक गुण माना जा सकता है, लेकिन बार-बार हुई पीछे हटने की घटनाएं यह संकेत भी देती हैं कि फैसले पर्याप्त विचार-विमर्श के बिना लिए जा रहे हैं। यदि नीति निर्माण पर सवाल खड़े होने लगें, तो लंबे समय में इससे सरकार की विश्वसनीयता पर दुष्प्रभाव पड़ता है। यह निर्णय पूरी तरह नकारात्मक प्रभाव डालेगा यह कहना गलत होगा। 

इससे यह संदेश गया कि सरकार विपक्ष और जनता की आवाज़ पर कान देती है, तो सरकार के प्रति जनविश्वास बढ़ सकता है। लगेगा कि सरकार प्राइवेसी संबंधी चिंताओं पर संवेदनशील है और निर्णयों को एकतरफा नहीं थोपती। प्रश्न यह भी उठता है कि जब ऐप को लेकर शुरुआती जनता का रुझान अच्छा था और लोग स्वेच्छा से इसे डाउनलोड कर रहे थे, तो प्री-इंस्टॉल अनिवार्यता की आवश्यकता क्यों पड़ी? यह सरकार की नीति-निर्माण शैली में निहित एक असंगति को उजागर करता है। अगर लोग इसे अपना ही रहे थे, तो उन्हें मजबूर करने की आवश्यकता क्यों? यह कदम उल्टा अविश्वास पैदा करता है, न कि सुरक्षा। 

इस निर्णय से सरकार को लाभ यह हो सकता है कि वह इसे ‘जनभावना का सम्मान’ बताते हुए सकारात्मक कहानी गढ़ सके। सरकार यह कह सकती है कि उसका उद्देश्य सुरक्षा था, निगरानी नहीं और वह नागरिकों की प्राइवेसी को सर्वोपरि मानती है। इसके साथ ही वह यह भी साबित करना चाहेगी कि वह लोकतांत्रिक आलोचना को स्वीकार करती है, लेकिन नीति-निर्माण का मूल पाठ है कि पारदर्शिता और विश्वास किसी भी लोकतांत्रिक शासन की नींव हैं। संचार साथी ऐप प्रकरण ने सरकार को यह सिखा दिया होगा कि तकनीकी समाधान जितने उपयोगी होते हैं, उतने ही संवेदनशील भी और जनस्वीकृति के बिना कोई भी डिजिटल नीति आगे नहीं बढ़ सकती।