…एक ऐसा युद्ध, जब पृथ्वीराज दो वीर योद्धाओं के पराक्रम के हो गए कायल, जानें कौन थे ये योद्धा

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क्षत्रियों में इतने वीर हुए हैं कि उनकी गाथा सुनाते सुनाते हमारी जिंदगी खत्म हो जाएगी किंतु हमारी गाथाएं खत्म नहीं होंगी। आज हम आपको ऐसे दो वीर योद्धाओं के बारे में बताने जा रहे हैं जिनके पराक्रम के आगे महाराजा पृथ्वीराज चौहान कायल हो गए। पढ़िए ये मार्मिक वर्णन… एक था महोबा राज्य जिसका …

क्षत्रियों में इतने वीर हुए हैं कि उनकी गाथा सुनाते सुनाते हमारी जिंदगी खत्म हो जाएगी किंतु हमारी गाथाएं खत्म नहीं होंगी। आज हम आपको ऐसे दो वीर योद्धाओं के बारे में बताने जा रहे हैं जिनके पराक्रम के आगे महाराजा पृथ्वीराज चौहान कायल हो गए। पढ़िए ये मार्मिक वर्णन…

एक था महोबा राज्य जिसका शासक था राजा परमालदेव चंदेल। उसकी सेना में दसराज बनाफर (बनाफर क्षत्रिय) नामक एक सरदार था। उसने न जाने कितनी ही बार युद्ध में पराक्रम दिखा कर महोवा को विजयी बनाया था। उसके दाे पुत्र थे आल्हा और उदल। पिता की राह पर ये दोनों भाई भी बहुत पराकर्मी थे। ये दोनों महोवा के मशहूर लड़ाका थे के नाम से मशहूर हुए। कहा जाता था की उस समय पृथ्वी में ऐसा कोई नहीं था जो इन दो भाइयों को हरा सके। उनके इन पराक्रम के कारण राजा परमालदेव चन्देल इन्हें अपने पुत्र के जैसा मानते थे।

उनका इतना बल देखकर राज्य के अन्य कर्मचारी उनसे जलते थे। आल्हा उदल के पास अच्छे नस्ल का घोड़ा था जो उनके पिता की आखिरी निशानी था। लोगों ने राजा के कान भरे कि ऐसा घोड़ा तो केवल महोवा के राजा के पास होना चाहिए। राजा परमालदेव चन्देल ने कुछ धन के बदले वो घोड़ा लेना चाहा पर आल्हा ने वो घोड़ा उन्हें नहीं दिया। इस पर राजा के सामंतों ने फिर से राजा के कान भरे और क्रोधवश राजा परमालदेव चन्देल ने उन्हें राज्य से निकलवा दिया। आल्हा उदल ने वहां रहना उचित न समझा और कन्नोज में जयचंद के पास शरणागत के रूप में आ गए।

जब पृथ्वीराज चौहान ने महोबा पर आक्रमण किया तो चंदेल साम्राज्य भयभीत हो गया। चौहान की सेना के सामने खुद को कमजोर पाने पर राजा ने आल्हा उदल को बुलाया। दोनों भाई कन्नौज से चल दिए तथा जब वह रुठने वाले अपनी मातृभूमि में पहुंचे तो सूखें धानों में पानी पड़ गया। टूटी हुई हिम्मतें बंध गई। चन्देलों की विशाल सेना इन वीरों की अगवानी करने के लिए खड़ी थी। बहुत दिनों के बाद वह अपनी मातृभूमि से बिछुड़े हुए इन दोनों भाइयों से मिले। आंखों ने खुशी के आंसू बहाए। राजा परमाल उनके आने की सूचना पर कीरत सागर तक पैदल आया। उनकों देखते ही आल्हा और ऊदल दौड़कर उसके पांव से लिपट गए।

तीनों की आंखों से पानी बरसा और सारा मनमुटाव धुल गया। दुश्मन सर पर खड़ा था। ज्यादा आतिथ्य-सत्कार का मौका नहीं था। कीरत सागर के किनारे देश के नेताओं और दरबार के कर्मचारियों की राय से आल्हा फौज का सेनापति बनाया गया। वहीं मरने-मारने के लिए सौगन्धें खाई गई, वहीं बहादुरों ने कसमें खाई कि मैदान से हटेंगे तो मरकर हटेंगें, वहीं लोग एक दूसरे के गले मिले और अपनी किस्मतों का फैसला करने चले।

आज किसी की आंखों में और चेहरे पर उदासी के चिह्न न थे। औरतें हंस-हंसकर अपने प्यारों को विदा कर रही थीं। वीर राजपूत भी हंस-हंसकर स्त्रियों से युद्ध के लिए विदाई ले रहे थे क्योंकि यह आखिरी बाजी है, इसे जीतना जिंदगी और हारना मौत है।

उस जगह के पास जहां अब और कोई कस्बा आबाद है। दोनों फौजों को मुकाबला हुआ। महाराजा जयचंद ने भी अपनी सेना पृथ्वीराज से युद्ध करने के लिए भेज दी थी। दोनों की सम्मिलित सेना लगभग एक लाख की थी। इस सेना को लेकर आल्हा और उदल अपने स्वामी की ओर से युद्ध करने के लिए निकल पड़े।

चंदेलों की इस विशाल सेना को देखकर पृथ्वीराज ने भी अपनी सेना को चार भागों में विभक्त किया। नरनाह और कान्हा समस्त चौहान सेना का सेनापति नियुक्त हुआ और पुंडीर लाखनसिंह कनाक्राय कान्हा की मदद के लिए नियुक्त हुए। यद्यपि चंदेल सेना भी विशाल थी तब भी पृथ्वीराज की कुछ ऐसी धाक जमी हुई थी कि सभी घबरा रहे थे। कन्हे ने इस वेग से आक्रमण किया की दुश्मन के पावं उखाड़ने लगे। बहुत ही घोर युद्ध होने लगा। राजा परमालदेव चन्देल पहले ही दस हजार सेना लेकर कालिंजर किले में भाग गए।

वीर बकुंडे आल्हा और उदल अपने स्थान में ही डटे रहे। वे जिधर जपत्ता मरते उधर ही साफ कर देते। आल्हा उदल के होते हुए भी प्रथम दिवस के युद्ध में चौहान सेना ही विजयी रही। राजा परमालदेव चन्देल के किले में भाग जाने के बावजूद उसका पुत्र ब्रह्मजीत युध्क्षेत्र में मौजूद था। आल्हा ने उन्हें चले जाने के लिए कहा पर उसने कहा की युद्ध मैदान से भागना कायरों का काम है। पहले दिन का युद्ध समाप्त होते होते पृथ्वीराज की सेना द्वारा जयचंद और राजा परमालदेव चन्देल के कई सामंत समेत हजारों सिपाही भी मारे गए।

दुसरे दिन का युद्ध फिर शुरू हुआ आज उदल बीस हजार सैनिकों को लेकर युद्ध मैदान में आ पहुंचा। आज उसकी वीरता की प्रशंसा उसके शत्रु भी करने लगे। उदल की वीरता को देखकर चौहान सेना विचलित हो उठी। इसे देखकर पृथ्वीराज स्वयं ही युद्ध मैदान में आ उदल का सामना करने लगे। बहुत देर तक युद्ध हुआ परन्तु कोई कम न था। पृथ्वीराज के हाथों उदल बुरी तरह घायल हो गया और आखिरकार वो उनके हाथों वीरगति प्राप्त हुआ।

उदल की मृत्यु का समाचार सुनकर ब्रह्मजीत और आल्हा क्रोध से भर उठे। दोनों ने पृथ्वीराज को घेर लिया। पृथ्वीराज को घिरा देखकर कान्हा उनकी दौड़ा। लेकिन आल्हा ने कान्हा पर ऐसा वार किया की वो बेहोश होकर गिर पड़ा। इसके बाद संजम राय ने पृथ्वीराज की मदद करने आगे आये पर वो भी आल्हा की हाथों मारे गए।

चंदरबरदाई ने संजम राय की मृत्यु को बहुत ही गर्वित अक्षरों में लिखा है “ऐसा दोस्त न कभी पैदा हुआ है और न ही कभी पैदा होगा। संजम राय ने पृथ्वीराज की खातिर अपने प्राण दे दिए।”

पृथ्वीराज के क्रोध की कोई सीमा नहीं रही और जल्द ही उन्होंने ब्रह्मजीत को मार गिराया। ब्रह्मजीत के मरते ही सारी चंदेल सेना में कोहराम मच गया। चंदेल सेना तितर बितर होने लगी। पृथ्वीराज पर तो मानो आज खून सावार था। अपनी सेना को हारता देख कर जब आल्हा को लगा की वो किसी भी तरह अपनी सेना की रक्षा नहीं कर सकता है तो उस वीर योद्धा आल्हा ने जंगल में सन्यास ले लिया और चंदेल सेना भाग खड़ी हुई।

इसी बीच चामुंडराय कालिंजर किले की ओर अग्रसर हो गया। यद्यपि राजा परमालदेव चन्देल ने अपनी रक्षा का पूरा पूरा प्रबंध कर लिया था लेकिन चामुंड राय ने वीरता से आक्रमण कर कालिंजर किले में अपना अधिकार जमा लिया। …और इस तरह महोवा और कालिंजर में पृथ्वीराज चौहान का अधिकार हुआ।