आज है गीता जयंती, श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दिया था धर्म और कर्म का उपदेश…

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न जायते म्रियते वा कदाचिन्ना, यं भूत्वा भविता वा न भूयः। अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो, न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥ अर्थात् -: आत्मा किसी काल में भी न जन्मता है और न मरता है और न यह एक बार होकर फिर अभावरूप होने वाला है। आत्मा अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है, शरीर के नाश होने …

न जायते म्रियते वा कदाचिन्ना, यं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो, न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥

अर्थात् -: आत्मा किसी काल में भी न जन्मता है और न मरता है और न यह एक बार होकर फिर अभावरूप होने वाला है। आत्मा अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है, शरीर के नाश होने पर भी इसका नाश नहीं होता।

भगवत गीता में सनातन धर्म की नीतियों का स्पष्ट वर्णन है। गीता में अठारह अध्याय और सात सौ श्लोक हैं। इसी ज्ञान रूपी महासागर की कुछ बूंदें सार के रूप में यहां प्रस्तुत की गई हैं। इन बूंदों को ग्रहण करके आप अपने जीवन को आशाओं से भरें और सुख एवं संपन्नता से परिपूर्ण जीवन जीयें।

महाभारत के युद्ध के समय कुरुक्षेत्र की रणभूमि में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जो उपदेश दिया है उन्हीं उपदेशों का संकलन है श्रीमद्भगवदगीता। असल में, यह उपदेशों का संकलन प्रश्न और उत्तर के रूप में है। अर्जुन कई प्रश्नवाचक चिन्हों के भंवर में फंसे हुए होते हैं और भगवान श्रीकृष्ण इन्हीं प्रश्नों का उत्तर देते हुए अर्जुन को इस चक्रव्यूह से बाहर निकालते हैं।भगवत गीता ही है जो आधुनिक युग में समस्याओं से घिरे हुए मनुष्य को एक कर्मशील जीवन जीने के लिए प्रेरित करती है।

गीता ऐसे प्रेरणादायक संदेशों का महासागर है जो जीवन से निराश मनुष्य को आशाओं से भर देती है। ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन की निराशाओं को दूर किया और उसे युद्ध लड़ने के लिए प्रेरित किया। आज की इस भागती दौड़ती ज़िन्दगी में मानव को, उसके मन को, उसकी आत्मा को अगर कोई शांत, स्थिर और प्रसन्नचित रख सकता है तो वह है।

जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि॥

अर्थात् -: जन्म लेने वाले की मृत्यु निश्चित है और मरने वाले का जन्म निश्चित है इसलिए जो अटल है अपरिहार्य है उसके विषय में तुमको शोक नहीं करना चाहिये।

नरक के तीन द्वार होते है, वासना, क्रोध और लालच। जिस प्रकार अग्नि स्वर्ण को परखती है, उसी प्रकार संकट वीर पुरुषों को। मनुष्य को परिणाम की चिंता किए बिना, लोभ- लालच बिना एवं निस्वार्थ और निष्पक्ष होकर अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। क्रोध से भ्रम पैदा होता है, भ्रम से बुद्धि व्यग्र होती है, जब बुद्धि व्यग्र होती है तब तर्क नष्ट हो जाता है।

जब तर्क नष्ट होता है तब व्यक्ति का पतन हो जाता है। मनुष्य को जीवन की चुनौतियों से भागना नहीं चाहिए और न ही भाग्य और ईश्वर की इच्छा जैसे बहानों का प्रयोग करना चाहिए।मनुष्य को अपने कर्मों के संभावित परिणामों से प्राप्त होने वाली विजय या पराजय, लाभ या हानि, प्रसन्नता या दुःख इत्यादि के बारे में सोच कर चिंता से ग्रसित नहीं होना चाहिए।कर्म के बिना फल की अभिलाषा करना, व्यक्ति की सबसे बड़ी मूर्खता है। सफलता जिस ताले में बंद रहती है वह दो चाबियों से खुलती है। एक कठिन परिश्रम और दूसरा दृढ संकल्प ।

भगवत गीता के सुविचार

  • सदैव संदेह करने वाले व्यक्ति के लिए प्रसन्नता ना इस लोक में है ना ही कहीं और।
  • जो मन को नियंत्रित नहीं करते उनके लिए वह शत्रु के समान कार्य करता है।
  • कोई भी इंसान जन्म से नहीं बल्कि अपने कर्मो से महान बनता है।
  • प्रबुद्ध व्यक्ति के लिए, गंदगी का ढेर, पत्थर और सोना सभी समान हैं।
  • कर्म मुझे बांधता नहीं, क्योंकि मुझे कर्म के प्रतिफल की कोई इच्छा नहीं।
  • मेरा तेरा, छोटा बड़ा, अपना पराया, मन से मिटा दो, फिर सब तुम्हारा है और तुम सबके हो।

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