बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे... कोख में बच्ची क्यों मर जाए... सेज की दुल्हन क्यों जल जाए गीत गाकर लोगों ने जताया विरोध
लोक गायिका नेहा राठौर और लखनऊ विश्वविद्यालय की डॉ. मेडुसा के खिलाफ दर्ज मुकदमे के विरोध में उतरे लोग
लखनऊ, अमृत विचार। लोक गायिका नेहा राठौर और लखनऊ विश्वविद्यालय की डॉ. मेडुसा के खिलाफ दर्ज मुकदमे के विरोध में जन संस्कृति मंच व अन्य संगठनों ने विरोध मार्च निकालने की कोशिश की तो विरोध करने वालों को हिरासत में लेकर ईको गार्डन पहुंचा दिया गया। ईको गार्डन में जन संस्कृति मंच ने जनोत्सव मना लिया। कविता पाठ और गीत गायन का कार्यक्रम आयोजित किया गया।
पटना से आए कलाकार अनिल अंशुमन के गीत से कार्यक्रम की शुरुआत हुई। ईको गार्डन में बोल कि लब आजाद हैं की गूंज सुनने को मिली। उन्होंने कहा कि सत्ता दमन ढा सकती है। वह लोगों को बंद करके ईको गार्डन ला सकती है या जेल में ठूंस सकती है। परंतु जबान को बंद नहीं किया जा सकता है। वह बोलेगी। वह नारे लगाएगी। गीत गाएगी। कुछ यूं कि बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे, बोल जबां अब तक तेरी है, बोल ये थोड़ा वक़्त बहुत है, जिस्म ओ जबां की मौत से पहले, बोल कि सच ज़िंदा है अब तक, बोल जो कुछ कहना है कह।
शायरा तस्वीर नकवी ने नेहा राठौर और डॉ. मेडुसा के साथ एकजुटता जाहिर करते हुए कहा कि न सिर्फ तुम्हें बल्कि सभी को लड़ना होगा। बेटियों के साथ आज ऐसा जुल्म है कि चुप नहीं रहा जा सकता है। उन्होंने सुनाया, लड़ना है तुझे मज़हब के ठेकेदारों से, इज़्ज़त के दावेदारों से, जिस्म के खरीदारों से, ज़हनों के पहरेदारों से, लड़ना है तुझे लड़ना है तुझे, कोख में बच्ची क्यों मर जाए, सेज की दुल्हन क्यों जल जाए, घर में जब झगड़ा हो जाए, क्यों वो डर के थप्पड़ खाए, लड़ना है तुझे लड़ना है तुझे।
विमल किशोर की संवेदना उन लोगों से जुड़ती है जो पहलगाम में आतंकवादियों के हमले में मारे गए। उन्हीं को समर्पित आज़ के हालात पर उन्होंने नज़्म सुनाई... हाय होकर गमगीन तेरे दर से गुजरा हूं कैसे, बहते हुए अपने आंसूओं को रोकूं तो कैसे, हाय कश्मीर हाल तुम्हारा ये किया तो कैसे, दुखियारी! तेरे आंसूओं का बोझ हम उठाएं तो कैसे, जो हंता है तेरे पति का वो तो है कातिल-हत्यारा, उन कातिलों को सज़ा मिलेगी तो कैसे।
इस नज़्म का विस्तार कौशल किशोर की कविता में दिखा... प्रधान ने भी भरी सभा में कहा था, कि लोगों को उनके कपड़ों से पहचानो, और देश में लोग ऐसे ही पहचाने जाने लगे, फर्क सिर्फ इतना है कि वो पहचानने के लिए कपड़े उतार देते हैं, और ये कपड़े को ही पहचान का माध्यम बना देते हैं, धर्म ने कपड़े पहन रखा है, कपड़े में धर्म सिमट गया है।
कवि कथाकार शैलेश पंडित ने अपनी कविता में कहा कि जो देश काल के चर्चे थे, अब खामोशी है, किससे क्या पूछें, कौन शख्स यहां दोषी है, कोई दुश्मन है, जिसने लूटा है बाजारों को, और मुट्ठी में उसने कर लिया अखबारों को, कहीं तो खत्म हो यह सिलसिला, आवाज तो दो, घना कोहरा है मगर पंख को परवाज तो दो।
इस मौके पर फरजाना महदी, धर्मेन्द्र कुमार, राकेश कुमार सैनी, शांतम निधि व शुचिता जैसे युवा रचनाकार मौजूद थे। एपवा की कमला गौतम व सरोजिनी बिष्ट, आइसा के शिवम सफीर, इनौस के राजीव गुप्ता, भाकपा-माले के जिला प्रभारी कामरेड रमेश सिंह ने संबोधित किया।
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