हाईकोर्ट ने डॉक्टर को जमानत देने से किया इंकार, कहा- मरीज को ये 'एटीएम' समझने लगे हैं
प्रयागराज, अमृत विचार। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने चिकित्सीय लापरवाही के मामले में एक डॉक्टर द्वारा दाखिल याचिका को खारिज करते हुए कड़े शब्दों में टिप्पणी की, कहा यह सत्य है कि चिकित्सकों को चिकित्सीय लापरवाही के चंगुल से बचाना आवश्यक है, लेकिन संरक्षण केवल उन चिकित्सा पेशेवरों को प्राप्त होना चाहिए, जो अपने पेशे में उचित परिश्रम और सावधानी बरतें। वर्तमान मामले में डॉक्टर पर आरोप है कि उसने सर्जरी में 4–5 घंटे की देरी की, जिससे गर्भ में पल रहे बच्चे की मृत्यु हो गई। अतः कोर्ट ने इस देरी को "अस्पष्टीकृत और गंभीर लापरवाही" मानकर डॉक्टर की जमानत याचिका खारिज कर दी, जिसमें उसने संपूर्ण आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने की मांग की थी।
उक्त आदेश न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार की एकलपीठ ने डॉ. अशोक कुमार राय के खिलाफ आईपीसी की विभिन्न धाराओं के तहत चल रही कार्यवाही को रद्द करने से इंकार करते हुए पारित किया। कोर्ट ने निजी चिकित्सा संस्थानों की कार्यप्रणाली पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए कहा कि निजी अस्पताल और नर्सिंग होम अब मरीजों को 'गिनी पिग' या 'एटीएम' समझने लगे हैं। ऐसे डॉक्टर जो बिना जरूरी सुविधा और विशेषज्ञों के नर्सिंग होम चला रहे हैं, उन्हें कोई संरक्षण नहीं मिल सकता है।
यह थी घटना
मामले के अनुसार 29 जुलाई 2007 को एक गर्भवती महिला को सावित्री नर्सिंग होम देवरिया में भर्ती कराया गया। मरीज के परिजनों ने सुबह 11 बजे सिजेरियन सर्जरी की सहमति दी थी, लेकिन सर्जरी शाम 5:30 बजे की गई। इस देरी के कारण भ्रूण की मृत्यु हो गई। एफआईआर में यह भी आरोप है कि डॉक्टर और उसके सहयोगियों ने विरोध करने पर मरीज के परिजनों के साथ मारपीट की, 8,700 रुपए की वसूली के बाद 10,000 रुपए और मांगे, तथा डिस्चार्ज स्लिप जारी करने से मना कर दिया। डॉ. राय ने कोर्ट के समक्ष तर्क दिया कि उन्होंने मरीज का इलाज अपनी योग्यता के अनुरूप किया और मेडिकल बोर्ड ने भी उनकी लापरवाही नहीं मानी है। हालांकि शिकायतकर्ता के अधिवक्ता ने बोर्ड की रिपोर्ट पर भरोसा न करते हुए कहा कि महत्वपूर्ण दस्तावेज जैसे पोस्टमार्टम रिपोर्ट और ओटी नोट बोर्ड के समक्ष प्रस्तुत नहीं किए गए। अंत में कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का हवाला देते हुए कहा कि यह मामला एक क्लासिक उदाहरण है, जहां डॉक्टर ने मरीज को भर्ती कर लिया और मरीज के परिवार से ऑपरेशन के लिए अनुमति लेने के बाद भी समय पर ऑपरेशन नहीं किया, क्योंकि उनके पास सर्जरी के लिए अपेक्षित डॉक्टर (एनेस्थेटिस्ट) नहीं था। कोर्ट ने व्यावसायिक लापरवाही पर जवाबदेही तय करने की प्रणाली को अधिक पारदर्शी और प्रभावी बनाने की आवश्यकता पर जोर देते हुए वर्तमान मामले को विचारणीय माना और सीआरपीसी की धारा 482 के तहत हस्तक्षेप करने से इंकार करते हुए डॉक्टर की याचिका को खारिज कर दिया।
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