प्रयागराज : इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर उठाए सवाल, पूर्ण पीठ की बैठक बुलाने का अनुरोध
प्रयागराज, अमृत विचार। इलाहाबाद हाईकोर्ट के वरिष्ठ न्यायमूर्ति अरिंदम सिन्हा ने 4 अगस्त, 2025 को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पारित एक आदेश पर गंभीर आपत्ति जताते हुए पूर्ण पीठ की बैठक बुलाने का आग्रह किया है। उन्होंने इस आदेश में एक अन्य न्यायमूर्ति के विरुद्ध की गई टिप्पणियों और प्रशासनिक निर्देशों को "स्तब्धकारी" और "न्यायिक गरिमा के प्रतिकूल" बताया है। मैसर्स शिखर केमिकल्स बनाम उत्तर प्रदेश राज्य मामला एक दीवानी विवाद से जुड़ा है, जिसमें माल विक्रेता द्वारा कथित विश्वासघात के आरोप में दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 405 के तहत आपराधिक कार्रवाई की गई थी। उच्च न्यायालय ने इसे दीवानी प्रकृति का मामला मानते हुए सम्मन रद्द कर दिया था, जिसे बाद में याची ने संविधान के अनुच्छेद 136 के तहत सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी।
सुप्रीम कोर्ट ने उच्च न्यायालय के आदेश को निरस्त करते हुए नए सिरे से सुनवाई के लिए मामला वापस भेजा और आदेश में संबंधित न्यायाधीश के विरुद्ध तीखी टिप्पणियां कीं। न्यायमूर्ति सिन्हा ने अपने पत्र में कहा है कि उक्त आदेश बिना किसी नोटिस के पारित किया गया और इससे न्यायपालिका की स्वायत्तता तथा मर्यादा को ठेस पहुंचती है। उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय के पुराने फैसलों का हवाला देते हुए कहा कि आपराधिक प्रक्रिया को दीवानी प्रक्रिया पर प्राथमिकता दी जाती है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि उच्च न्यायालय के न्यायमूर्तियों की आलोचना सार्वजनिक रूप से की जाए, जबकि उन्हें अपनी बात रखने का अवसर ही न मिला हो।
उन्होंने ली कुन ही बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और सैयद असकरी हादी ऑगस्टाइन इमाम बनाम दिल्ली प्रशासन जैसे फैसलों का हवाला देते हुए सुप्रीम कोर्ट द्वारा की गई आलोचना को "अनुचित, आधारहीन और न्यायिक पद की गरिमा के प्रतिकूल" बताया। पत्र के अंत में उन्होंने इलाहाबाद हाईकोर्ट की पूर्ण पीठ से यह प्रस्ताव पारित करने का अनुरोध किया कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के पैराग्राफ 24 से 26 में दिए गए प्रशासनिक निर्देशों का अनुपालन नहीं किया जाएगा, क्योंकि संविधान के अनुसार सुप्रीम कोर्ट को उच्च न्यायालयों पर प्रशासनिक नियंत्रण का अधिकार नहीं है। यह पत्र न्यायिक प्रणाली में न्यायाधीशों की स्वतंत्रता और गरिमा से जुड़े संवेदनशील प्रश्न उठाता है, जो न्यायिक संघवाद के सिद्धांतों और न्यायिक प्रशासन की सीमा रेखाओं पर एक नई बहस की शुरुआत कर सकता है।
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