बुंदेलखंड का इतिहास : बुंदेली राजाओं की वीरगाथा से भरा हुआ अभेद्य किला कालिंजर, सांस्कृतिक और राजनीतिक परिदृश्य का गवाह
बुंदेलखंड का इतिहास बुंदेली राजाओं की वीरगाथा से भरा हुआ है। यहां के बांदा जिले में स्थित कालिंजर का किला भी भारत की बदलते सांस्कृतिक और राजनीतिक परिदृश्य का गवाह रहा है। इसे भारत के सबसे विशाल और अपराजेय किलों में गिना जाता है। प्राचीन काल में यह किला जेजाकभुक्ति (जयशक्ति चन्देल) साम्राज्य के आधीन था।
10वीं शताब्दी तक चन्देल राजपूतों के आधीन और फिर रीवा के सोलंकी राजाओं के आधीन रहा। इन राजाओं के शासनकाल में कालिंजर पर महमूद गजनवी, कुतुबुद्दीन ऐबक, शेरशाह सूरी और हुमांयू ने आक्रमण किए, लेकिन कभी विजय पताका नहीं फहरा सके। कालिंजर को जीतने के चक्कर में ही तोप का गोला लगने से शेरशाह की मृत्यु हुई थी।
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हालांकि सम्राट अकबर ने इस किले को जीत लिया और बीरबल को तोहफे में दे दिया था। बाद में बुंदेल राजा छत्रसाल ने इसे जीता। अंग्रेजों ने भी यहां शासन किया। इस दुर्ग में कई प्राचीन मन्दिर हैं। इनमें कई मन्दिर तीसरी से पांचवीं सदी के हैं। कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर लगने वाला कार्तिक मेला यहां का प्रसिद्ध सांस्कृतिक उत्सव है। इस किले को देखने के लिए भारत ही नहीं विदेशों से भी पर्यटक आते हैं। यहां का प्राकृतिक सौंदर्य हर किसी के मन को मोह लेता है।
किले में प्रवेश के लिए बने हैं सात दरवाजे
इस किले के निर्माण को लेकर कई दावे किए जाते हैं। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि इसका निर्माण चंदेल वंश के संस्थापक चंद्र वर्मा ने कराया था तो कुछ इतिहासकारों का मानना है कि इस दुर्ग का निर्माण केदार वर्मन ने कराया था। कलिंजर का किला वैसे तो शांत दिखता है लेकिन बहुत ही खौफनाक है। यहां सूरज ढलने के साथ ही सन्नाटा छा जाता है। जो भी पर्यटक होते हैं उन्हें सुरक्षाकर्मी किले से बाहर भेज देते हैं। कहा जाता है कि रानी महल से रात में घुंघुरुओं की आवाज सुनाई देती है। जमीन से आठ सौ फीट की ऊंचाई पर स्थित पहाड़ी पर बने इस किले में प्रवेश के लिए सात दरवाजे बने हुए हैं।
इनकी खास बात यह है कि ये एक- दूसरे से बिल्कुल अलग हैं। प्रथम द्वार को सिंह द्वार के नाम से जाना जाता है। इसके अतिरिक्त गणेश द्वार, चंडी द्वार, स्वर्गारोहण द्वार, बुद्धगढ़ द्वार, हनुमान द्वार आदि द्वार यहां हैं। किले में सीता सेज नामकन छोटी से गुफा भी है। जिसमें एक पत्थर का पलंग और तकिया रखा हुआ है। यहीं एक कुंड भी है। किले में बुड्ढा और बुड्ढी नामक दो तालाब हैं। इसके पानी को औषधीय गुणों से युक्त माना जाता है। मान्यता है कि इसमें स्नान करने से चर्म रोग जैसी बीमारी ठीक हो जाती है। चंदेल राजा कीर्तिवर्मन कुष्ठ रोग से पीड़ित थे। इसमें स्नान के कारण इस रोग से मुक्ति उन्हें मिली।
अलग- अलग नामों से रही पहचान
इतिहासकार बताते हैं कि कालिंजर को अलग-अलग युग में भिन्न-भिन्न नामों से जाना गया। सतयुग में इसे कीर्तिनगर, त्रेतायुग में मध्यगढ़, द्वापर में सिंहलगढ़ और कलियुग में कालिंजर नाम से जाना गया। इतिहासकार इसे मध्यकालीन भारत का सबसे अच्छा किला मानते हैं। किले में गुप्त काल, प्रतिहार काल और नागर जैसी स्थापत्य शैलियां दिखाई देती हैं। इस किले में राजा व रानी के दो भव्य महल हैं। यहां पाताल गंगा नामक जलाशय भी है। यहां के पांडु कुंड में चट्टानों से निरंतर पानी टपकता रहता है। मान्यता है कि पाताल गंगा इसके नीचे से होकर ही बहती हैं। इसी से यह कुंड भरता है।
शेरशाह ने छह माह तक किया युद्ध
1544 में राजा कीरत सिंह यहां के महाराज थे। तब शेरशाह सूरी ने इस किले पर आक्रमण किया था। उसकी विशाल सेना ने किले को चारो तरफ से घेर लिया। छह माह तक घनघोर युद्ध चला लेकिन बुंदेली सैनिकों को वह परास्त नहीं कर सका। युद्ध में विजय न मिलती देख शेरशाह ने यहां किले के पास ही ऊंची मीनार बनाने का निर्णय लिया। इसका निर्माण भी उसने कराया और मीनार के ऊपर ही उसने गोला- बारूद चढ़ाने का आदेश सैनिकों को दिया। सैनिकों ने गोला- बारूद मीनार पर पहुंचाया, लेकिन एक गोले के फटने से शेरशाह गंभीर रूप से जख्मी हुआ और उसकी मृत्यु हुई।
नीलकंठ मंदिर आस्था का केंद्र
किले में ही नीलकंठ महादेव का मंदिर स्थापित है। चंदेल शासक परमादित्य देव ने इस मंदिर की स्थापना की थी। यहां भगवान शिव तक पहुंचने के लिए दो द्वारों से होकर गुजरना पड़ता है। यह मंदिर किले के पश्चिमी भाग में स्थित है। यहां स्थापित शिवलिंग स्वयंभू है और नीले पत्थर का है। इसकी खासियत यह है कि इसमें से पानी टपकता है।
