अश्वथ का छलका दर्द : टाइप कास्टिंग से परेशान होकर थोक के भाव में छोड़नी पड़ीं फिल्में
हैदर, राजी, फैनटम, सीता रमम और डिप्लोमेट जैसी फिल्मों में किया दमदार अभियन
थियेटर और बॉलीवुड एक्टर अश्वथ भट्ट के साथ अमृत विचार की खास बाचतीच
मोनिस खान, अमृत विचार। किसी बहुमुखी अभिनेता के लिए टाइप कास्टिंग को लंबे समय तक झेलना आसान काम नहीं। एक ही तरह की फिल्में बार-बार ऑफर होने के बाद उनको छोड़ने के सिवा दूसरा कोई चारा नहीं बचता। नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा से निकलकर थियेटर के मंझे हुए एक्टर अश्वथ भट्ट ने जब बॉलीवुड में कदम रखा तो उनको यही सब झेलना पड़ा, जो आज तक जारी है। राजी, फैनटम, हैदर, सीता रमम जैसी फिल्मों में उनके काम की खूब तारीफ हुई।
इसी साल जॉन अब्राहम के साथ आई फिल्म डिप्लोमेट में पाकिस्तानी स्पाई एजेंसी आईएसआई अफसर का दमदार किरदार निभाया। मगर कसक यही कि पाकिस्तानी किरदारों को निभाने की छाप ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। बकौल अश्वथ भट्ट एक वक्त ऐसा भी आया जब टाइप कास्टिंग की वजह से बड़ी तादाद में फिल्मों के ऑफर तक ठुकरा दिए। पेश हैं अमृत विचार से खास बातचीत के कुछ अंश।
जिन फिल्मों में उन्होंने काम किया उनमें ज्यादातर की कहानी सरहद पार जाने के सवाल पर उनका दर्द छलका और कहा कि एक वक्त ऐसा आया जब उन्होंने थोक के भाव में फिल्मों को छोड़ दिया। क्योंकि हमेशा एक तरह का काम देने की कोशिश की गई। जिसको टाइप कास्टिंग बोलते हैं। पूरे करियर में इस सब को अब तक फेस किया। मगर इसके बरअक्स बहुत सारी फिल्में की जिनमें अलग तरह का किरदार किया।
एक फिल्म आने वाली है, मेड इन इंडिया जिसमें वो तमिल ब्राह्मण का किरदार निभा रहे हैं। मंडली फिल्म में उन्होंने रामलीला में राम का किरदार निभाने वाले लड़के का रोल किया। मगर लोगों को वही दिखता है जैसी छाप बना दी गई। कोई बिहारी एक्टर से नहीं पूछेगा कि तुम फिल्मों में बिहारी क्यों बनते हो। मेरी फिल्मों को देखेंगे तो उनकी पृष्ठभूमि एक हो सकती, मगर जिन किरदारों को निभाया वो एक दूसरे से अलग हैं। खुद की पसंद यही है कि अलग-अलग किरदारों को करूं। मगर सबकुछ हमारे हाथ में भी नहीं होता है।

छोटे शहरों को चाहिए रंगमंच के सुधिजन
रंगमंच को लेकर बेहद गंभीर अश्वथ छोटे शहरों में थियेटर को और बढ़ावा देने की हिमायत करते हैं। बरेली जैसे शहरों के अंदर रंगमंच कलाकारों के सामने आ रही चुनौतियों से निपटने और यहां थियेटर को आगे बढ़ाने के सवाल पर उनका जवाब है, थियेटर फेस्ट होना अच्छी बात है, मगर उससे ज्यादा जरूरी है कि नए कलाकारों के लिए कार्यशालाएं रखी जाएं। प्रशासन के सहयोग नाट्यशाला विकसित की जाएं।
इस कला को स्कूलों के अंदर भी ले जाना होगा। सभी एक्टर बनें जरूरी नहीं, हमे डायरेक्टर, प्रोडक्शन टीम, राइटर, लाइटर डिजायनर और सबसे जरूरी सुधिजन भी चाहिए। लोगों को रंगमंच और सिनेमा में फर्क भी समझना होगा। हमें थियेटर की ऑडियंस विकसित करनी होगी जो रंगमंच के संस्कार को भी समझे। इसके अलावा दुनिया के किसी भी कोने का थियेटर तभी आगे बढ़ सकता है जब जमीन पर काम हो। इसके लिए ट्रेनिंग सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है। देश में जितने भी बड़े एक्टर हैं वो ट्रेनिंग हासिल करके ही इस मुकाम पर पहुंचे हैं। नसीरउद्दीन शाह, अनुपम खेर, परेश रावल, ओमपुरी, सौरभ शुक्ला, पंकज त्रिपाठी इन सभी ने थियेटर से शुरुआत की।
