संपादकीय: आतंक का नया चेहरा
गुजरात एटीएस द्वारा हाल ही में उजागर की गई आतंकी साजिश देश की आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था के लिए एक गंभीर चेतावनी है। प्रारंभिक जांच में यह संकेत मिले हैं कि इस साजिश का निशाना लखनऊ स्थित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्यालय था। यदि यह सत्य सिद्ध होता है, तो यह घटना केवल किसी संगठन पर हमला नहीं, बल्कि देश की वैचारिक और सामाजिक संरचना को अस्थिर करने की कोशिश कही जाएगी। एटीएस के अनुसार, पकड़े गए आरोपियों में एक डॉक्टर शामिल है, जिसने चीन से पढ़ाई की और प्रयोगशाला में रिसिन नामक घातक जैविक जहर का परीक्षण भी किया।
यह वही जहर है, जिसे लेकर अमेरिका में बराक ओबामा और डोनाल्ड ट्रंप के खिलाफ साजिश रची गई थी। रिसिन का कोई ज्ञात एंटीडोट नहीं है और इसका प्रयोग आतंकवाद के जैविक हथियार के रूप में किया जाता है। देश में इसका निर्माण या प्रयोग हुआ होता, तो यह सबसे भीषण आतंकी घटना का रूप ले सकती थी। एटीएस के शक के मुताबिक यदि इस जहर हो प्रसाद में मिला दिया जाता, तो हजारों मौतें होतीं तथा धार्मिक सौहार्द छिन्न-भिन्न होने के अलावा वर्ग विशेष के प्रति भयानक दहशत फैल जाती। इस खुलासे के बाद लगता है कुछ कट्टरपंथी समूह पारंपरिक विस्फोटक या बंदूक की बजाय रासायनिक और जैविक हथियारों की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। आतंकवाद की शैली बदल रही है। आतंक का चेहरा साइबर, रासायनिक और वैचारिक रूप लेता जा रहा है। उत्तर प्रदेश, गुजरात और कर्नाटक जैसे राज्य बीते कुछ समय से आतंकी संगठनों के निशाने पर रहे हैं। कारण है इन राज्यों की आबादी, धार्मिक-सांस्कृतिक विविधता और रणनीतिक महत्व।
पिछले कुछ वर्षों में आतंकियों की साजिशों का ग्राफ बढ़ा है, जो गृह मंत्रालय और खुफिया तंत्र की सजगता की परीक्षा है। इस घटना को विभाग की “सतर्कता में कमी” कहना उचित नहीं होगा, सरकार और सुरक्षा एजेंसियों को इस खुलासे को “एक आकस्मिक साजिश” नहीं, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति की समीक्षा का अवसर मानना चाहिए। असल चुनौती तो आतंक की बदलती प्रकृति को समझने और उससे पहले कदम उठाने की है। जरूरत है कि हम विदेशी शिक्षा और प्रशिक्षण प्राप्त संदिग्धों की व्यापक प्रोफाइलिंग करने के अलावा जैविक और रासायनिक हथियारों से जुड़ी निगरानी प्रणाली को मजबूत करें। इसके साथ धार्मिक आयोजनों और सार्वजनिक स्थानों पर सुरक्षा जांच को आधुनिक बनाने और साइबर इंटेलिजेंस नेटवर्क को पुनर्गठित करने की भी आवश्यकता है।
पारंपरिक आतंक से लड़ाई में हमने अब तक उल्लेखनीय सफलता पाई है, लेकिन यह नया खतरा तकनीकी और वैचारिक दोनों स्तरों पर जटिल है। इसलिए इसे केवल पुलिस या एटीएस का विषय नहीं माना जा सकता। यह राष्ट्र की सामूहिक सतर्कता और नीतिगत तत्परता की परीक्षा है। इस बार, लापरवाही की कोई गुंजाइश नहीं। आरएसएस या अन्य हिंदू संगठनों की वैचारिक एवं कार्य सक्रियता इस्लामिक आतंकियों को भड़काती हैं, यह तर्क अधूरा और खतरनाक है। किसी राजनीतिक या धार्मिक मतभेद के कारण कोई समूह आतंक की राह पकड़ता है, तो वह लोकतंत्र की आत्मा को नष्ट करने का प्रयास करता है। इसका कड़ा प्रतिकार होना ही चाहिए।
