संपादकीय: सफेदपोश आतंक
दिल्ली विस्फोट के नये खुलासों ने एक बार फिर यह स्पष्ट कर दिया है कि यह कई शहरों में धमाके की सुव्यवस्थित आतंकी साजिशी शृंखला की एक कड़ी थी। जांच एजेंसियों द्वारा पकड़े गए आरोपियों में छह डॉक्टरों सहित अनेक उच्च शिक्षित युवाओं का शामिल होना यह बताता है कि आतंकवाद वंचित तबके के साथ ही अब शहरी, शिक्षित, प्रतिष्ठित वर्गों के बीच भी गहरी पैठ बना चुका है। यह सवाल बेहद गंभीर है कि आखिर पढ़े-लिखे, सामाजिक रूप से सफल लोग आतंक के रास्ते पर क्यों उतर रहे हैं?
उत्तर है, धर्म के अधूरे घातक ज्ञान के बाद वैचारिक ब्रेनवॉश, ऑनलाइन प्रचार और “डिजिटल रैडिकलाइजेशन” का बढ़ता जाल। सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म, धार्मिक कट्टरपंथी साइटें और एन्क्रिप्टेड चैट समूह अब आतंक के लिए वही काम कर रहे हैं जो कभी सीमापार प्रशिक्षण शिविर करते थे। अब आतंकी शिविरों जाने की जरूरत नहीं वह खुद ऐसे लोगों तक पहुंच रहा है। इन मंचों पर “युवाओं को यह विश्वास दिलाया जा रहा है कि हिंसा किसी उच्चतर उद्देश्य की पूर्ति का साधन है।
भारत में “वाइट कॉलर टेरर मॉड्यूल” का फैलना इसी प्रक्रिया का नतीजा है। ये लोग न तो आर्थिक रूप से मजबूर हैं और न ही सामाजिक रूप से हाशिए पर, परंतु इन्हें आतंकवादी संगठनों द्वारा “इंटेलेक्चुअल कैप” के रूप में सामाजिक साख वाले चेहरे तथा तकनीकी, वित्तीय और नेटवर्किंग सहायता देने वाले सहयोगी के बतौर इस्तेमाल किया जा रहा है। इसके चलते आतंकी विचार अब विश्वविद्यालयों, अस्पतालों और आईटी कंपनियों के गलियारों तक पहुँच गया है।
इस पूरे नेटवर्क के सूत्र पाकिस्तान तक जाते हैं। गिरफ्तारियों से साफ़ है कि धन, विस्फोटक और डिजिटल सहायता पाकिस्तान की धरती से संचालित समूहों जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तैयबा से प्राप्त हुई। सैन्य-ग्रेड विस्फोटकों तक पहुंच बना लेना और तीन हजार किलो तक सामग्री जुटा लेना तभी संभव हो सकता है जब इसके पीछे संगठित अंतरराष्ट्रीय लॉजिस्टिक चैनल हों। यह भारत की खुफिया एजेंसियों के लिए गंभीर आत्ममंथन का विषय है कि इतने बड़े नेटवर्क को सक्रिय होने में इतना समय कैसे मिल गया।
“ऑपरेशन सिंदूर” के बाद यह अपेक्षा थी कि पाकिस्तान को भारत की आंतरिक सुरक्षा से खिलवाड़ की कोई और गुंजाइश नहीं बचेगी, लेकिन हकीकत में उसे उतना सबक नहीं मिला जितनी जरूरत थी। इसका कारण यह है कि भारत की प्रतिक्रिया अक्सर ‘घटना के बाद’ तक सीमित रहती है, ‘घटना से पहले’ नहीं। यही हमारी रणनीतिक कमजोरी है। जरूरी है कि गृह मंत्रालय साइबर इंटेलिजेंस को मजबूत बनाते हुए इस पर बहुस्तरीय निगरानी ढाँचा स्थापित करें,विश्वविद्यालयों और अस्पतालों जैसे संवेदनशील संस्थानों में सुरक्षा ऑडिट नियमित रूप से हों, तथा राज्यों के बीच खुफिया समन्वय अनिवार्य बनाया जाए।
दिल्ली विस्फोट एक ऐसा आतंकी वारदात है जो हमारी सुरक्षा नीति और ऑपरेशन सिंदूर जैसी पहलों की सीमाओं को उजागर करता है। समय है कि भारत आतंकवाद को केवल सीमा-पार चुनौती न माने, बल्कि उसे “अंदर से पलने वाली” मानसिक और वैचारिक चुनौती के रूप में भी समझे। क्योंकि जब आतंक सफेद कॉलर पहन ले, तब बंदूक से पहले विचार की जंग जीतनी पड़ती है।
