संपादकीय : उच्च शिक्षित आतंकी
उत्तर प्रदेश की राज्यपाल आनंदीबेन पटेल की यह चिंता कि पढ़े-लिखे लोग भी अब आतंकवाद की ओर आकर्षित हो रहे हैं, केवल एक राजनीतिक टिप्पणी नहीं, बल्कि हमारी शिक्षा प्रणाली, सामाजिक वातावरण और डिजिटल युग के सम्मिलित संकट का गहरा संकेत है। यह चिंता इसलिए भी उचित है, क्योंकि पिछले एक दशक में वैश्विक स्तर पर ऐसे अनेक उदाहरण सामने आए हैं, जहां इंजीनियरिंग, चिकित्सा, विज्ञान और उच्च शिक्षा संस्थानों से जुड़े युवाओं ने कट्टरवाद या हिंसक विचारधाराओं का रास्ता अपनाया।
प्रश्न यह है कि जिस शिक्षा से तार्किकता, विवेक, वैज्ञानिक दृष्टिकोण और मानवता की अपेक्षा की जाती है, वह क्यों कई बार इन अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर पाती? शिक्षा का लक्ष्य अभी भी डिग्री देना है, दृष्टिकोण नहीं। हम गुणात्मक सोच, नैतिक शिक्षा, संवैधानिक मूल्य, वैज्ञानिक मानसिकता और सामाजिक जिम्मेदारी को पाठ्यक्रम के केंद्र में नहीं रख पाए हैं, सो मूल्य-तटस्थ पढ़ाई को दोषी ठहराना उचित नहीं। दोष उस सामाजिक और वैचारिक वातावरण में है, जिसमें विद्यार्थी पनपता है। यदि घर, समुदाय, विश्वविद्यालय परिसर और डिजिटल स्पेस लगातार किसी विशेष विचारधारा, भय, असुरक्षा या शत्रु-कल्पना को पोषित कर रहे हो, तो शिक्षा का तटस्थ ज्ञान उसके सामने कमजोर पड़ने से अत्यंत कुशाग्र, तकनीकी दक्ष और सफल पेशेवर भी कट्टर विचारों के शिकंजे में फंस जाते हैं।
विज्ञान पढ़ना और वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखना दो अलग बातें हैं। यदि सामाजिक परिवेश किसी व्यक्ति को भय, अस्मिता या ‘दूसरे’ के प्रति नफरत से भर दे, तो पढ़ा-लिखा भी भावनात्मक जाल में फंस सकता है। डिजिटल दुनिया की भ्रामक सूचनाएं, षड्यंत्र-थ्योरियां और लक्षित दुष्प्रचार युवा दिमागों को लगातार प्रभावित कर रही हैं। सोशल मीडिया एल्गोरिद्म अपने लाभ हेतु व्यक्ति को उसी सामग्री की ओर धकेलता है, जो उसकी मानसिकता को भाए। उसके गुस्से, असंतोष और पूर्वाग्रहों को मजबूत करे। सूचना की अधिकता और ज्ञान की कमी अक्सर विवेक को कुंद कर देती है।
राष्ट्रभक्ति और मानवीयता किसी डिग्री का अनिवार्य उप-उत्पाद नहीं हैं, वे संस्कार, संवाद और विवेक से विकसित होती इसलिए एक कुशल पेशेवर, डॉक्टर, इंजीनियर या शोधकर्ता स्वाभाविक रूप से देशभक्त, तार्किक और उदार विचारों वाला नागरिक भी होगा इसकी कोई गारंटी नहीं। सरकार और समाज को इसके लिए मिलकर प्रयास करना होगा। शिक्षा में वैज्ञानिक दृष्टिकोण, संविधान-परक नागरिकता और सामाजिक नैतिकता अनिवार्यतः शामिल हो। कट्टरता रोकने में परिवार, समुदाय, शैक्षणिक संस्थानों समन्वित भूमिका निभाएं।
युवाओं को रोजगार, अवसर और सकारात्मक सामाजिक उद्देश्य उपलब्ध कराए जाएं, क्योंकि बेरोजगारी कट्टरवाद की उर्वर भूमि है। विद्यालयों-महाविद्यालयों में इस तरह का भी पाठ्यक्रम हो, जो विभिन्न माध्यमों द्वारा दुष्प्रचार को समझने में सक्षम बनाए। डिजिटल प्लेटफार्मों पर भ्रामक सामग्री और नफरत फैलाने वाले तंत्रों पर कठोर निगरानी हो। राज्यपाल की चिंता इसलिए समीचीन है, क्योंकि आतंकवाद अब केवल सामाजिक हाशिए से नहीं, बल्कि शिक्षित वर्ग से भी पोषण पा रहा है। इसे रोकना केवल सुरक्षा एजेंसियों का कार्य नहीं, यह समाज, शिक्षा और शासन तीनों की साझा जिम्मेदारी है।
