संपादकीय:सांसों पर संकट

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Published By Monis Khan
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दिल्ली में सांस-सांस संकटाकीर्ण है। यह प्रदूषण का आपातकाल है। वायु गुणवत्ता सूचकांक के खतरनाक स्तर पर पहुंचने और एयर क्वालिटी अर्ली वार्निंग सिस्टम द्वारा अगले छह दिनों तक इसे ‘बहुत खराब’ श्रेणी का बने रहने का पूर्वानुमान लगाए जाने के बाद ऐसा लगता है कि कभी चीन के शहरों में लगने वाले एयर पॉल्यूशन इमरजेंसी को लागू करने का समय आ गया है।

जब सीएक्यूएम द्वारा पहले ग्रैप-3 और फिर ग्रैप-4 लागू करने, 50 फीसद कर्मचारियों का वर्क फ्रॉम होम, बीएस-4 बड़े व्यावसायिक वाहनों पर रोक, निर्माण गतिविधियां बंद, स्कूल हाइब्रिड मोड, कचरा या ईंधन जलाने पर प्रतिबंध, डीज़ल जनरेटर, आरएमसी प्लांट, स्टोन क्रशर, ईंट भट्ठे और खनन पर रोक लगाने के बावजूद हालात नहीं सुधरे तो यह मानना होगा कि मौजूदा उपाय आवश्यक तो हैं, पर अपर्याप्त हैं। 

जब एक्यूआई खतरनाक सीमा पार हुआ तो चीन के बीजिंग, शंघाई जैसे शहरों ने ग्रेडेड नहीं, बल्कि पूर्ण आपातकाल अपनाया। निजी वाहनों पर व्यापक प्रतिबंध, उद्योगों का अस्थायी शटडाउन, स्कूलों की पूर्ण ऑनलाइन शिफ्ट, सार्वजनिक परिवहन को निःशुल्क बनाया, सख्त प्रवर्तन लागू किया। लंदन ने लो-एमिशन ज़ोन, पेरिस ने कार-फ्री डे और सियोल ने रियल-टाइम चेतावनी के साथ कड़े ट्रैफिक नियंत्रण लागू किए। दिल्ली-एनसीआर को भी ऐसे निर्णायक, अल्पकालिक कठोर कदम उठाने होंगे। समस्या केवल दिल्ली तक सीमित नहीं है। पूर्वी व पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई शहरों में भी हवा बिगड़ चुकी है। 

यहां क्षेत्रीय दृष्टिकोण जरूरी है- राज्यों के बीच साझा कार्ययोजना, पराली प्रबंधन में वित्तीय प्रोत्साहन, ईंट भट्ठों का तेजी से स्वच्छ तकनीक में रूपांतरण, शहरी धूल नियंत्रण और ट्रक-बसों के उत्सर्जन की सख्त जांच बहुत जरूरी है। यूपी सरकार ने इस बाबत सख्ती बरते जाने की घोषणा की है। पर निरीक्षण, चालान और प्रतिबंध का असर तभी होगा, जब स्थायी प्रवर्तन और पारदर्शी डेटा साझा किया जाए। एयर मॉनिटरिंग की कमी भी एक बड़ी बाधा है। राजधानी में 40 स्टेशन हैं, जबकि अधिकांश शहर सिंगल डिजिट में। लो-कॉस्ट सेंसर, मोबाइल मॉनिटरिंग व निजी-शैक्षणिक साझेदारी से नेटवर्क तेजी से बढ़ाया जा सकता है। डेटा जितना व्यापक होगा, नीति उतनी सटीक बनेगी।

प्रदूषण का असर केवल नागरिकों तक सीमित नहीं- जानवर, पक्षी और शहरी जैव-विविधता भी इससे प्रभावित हैं। आश्रय, पानी के स्रोत और पशु-चिकित्सा तैयारियों पर सरकारों को समानांतर ध्यान देना चाहिए। स्वास्थ्य के मोर्चे पर, जब सर्वेक्षण बताते हैं कि दिल्ली की 80 प्रतिशत आबादी किसी न किसी प्रदूषण संबंधी बीमारी से जूझ रही है, तो स्वास्थ्य क्षति के मुआवजे, बीमा प्रीमियम में राहत और प्रदूषण-जनित रोगों के लिए विशेष फंड पर विचार अनिवार्य है। प्रदूषण निवारण केवल सरकारों का काम नहीं। जनता की भागीदारी- कारपूलिंग, कचरा न जलाना, स्वच्छ ईंधन, शिकायत ऐप्स का उपयोग- निर्णायक भूमिका निभा सकती है। आज अदालती सुनवाई के बाद प्रशासन निर्णायक कार्रवाई के लिए कितना बाध्य होगा, देखना होगा।