Bareilly : भड़काऊ नारे कानून को खुली चुनौती, ऐसे कृत्य पर जमानत नहीं
बरेली बवाल प्रकरण में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सर तन से जुदा नारे को बताया संप्रभुता पर हमला
प्रयागराज/बरेली, विधि संवाददाता, अमृत विचार। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 26 सितंबर को हुए बरेली हिंसा प्रकरण में आरोपी की जमानत अर्जी खारिज करते हुए स्पष्ट किया है कि "गुस्ताख़-ए-नबी की एक सज़ा, सर तन से जुदा” जैसे नारे न केवल कानून-व्यवस्था के विरुद्ध हैं, बल्कि भारत की संप्रभुता, अखंडता और संवैधानिक व्यवस्था को सीधी चुनौती देते हैं। यह आचरण गंभीर अपराधों के दायरे में आता है। भड़काऊ नारे कानून को खुली चुनौती देने जैसा है। ऐसे कृत्य पर किसी भी हाल में जमानत नहीं दी जा सकती।
कोर्ट ने कहा कि विवादित नारे का कुरान या किसी प्रामाणिक इस्लामी ग्रंथ में कोई आधार नहीं है, फिर भी कुछ लोग इसके निहितार्थ और दुष्परिणाम समझे बिना इसका प्रयोग कर रहे हैं। इससे समाज में वैमनस्य फैलता है। उक्त आदेश न्यायमूर्ति अरुण कुमार सिंह देशवाल की एकलपीठ ने पुलिस स्टेशन कोतवाली, बरेली में बीएनएस, क्रिमिनल लॉ अमेंडमेंट एक्ट, लोक संपत्ति नुकसान निवारण अधिनियम की विभिन्न धाराओं के तहत दर्ज मामले में आरोपी रिहान की जमानत याचिका खारिज करते हुए पारित किया। 26 सितंबर को बीएनएसएस की धारा 163 (पांच से अधिक व्यक्तियों के जुटने पर प्रतिबंध) लागू होने के बावजूद बरेली के बिहारीपुर क्षेत्र में इत्तेहाद-ए-मिल्लत काउंसिल (आईएमसी) के अध्यक्ष मौलाना तौकीर रजा और नेता नदीम खान ने कथित तौर पर भीड़ को इस्लामिया इंटर कॉलेज में इकट्ठा होने के लिए उकसाया, जिससे "मुस्लिम युवाओं के विरुद्ध अत्याचारों और झूठे मामलों" के खिलाफ प्रदर्शन किया जा सके। 500 से अधिक लोगों की एकत्र भीड़ ने सरकार-विरोधी नारे लगाए। इसमें ''''सर कलम करने वाला'''' विवादित नारा भी शामिल था। पुलिस के हस्तक्षेप करने पर भीड़ हिंसक हो गई और उन्होंने कथित तौर पर पुलिस की लाठियां छीन लीं, वर्दी फाड़ दी और पेट्रोल बम फेंकने, फायरिंग और पत्थरबाजी का सहारा लिया। अभियोजन के अनुसार आरोपी को मौके से गिरफ्तार किया गया और वह अवैध जमावड़े का हिस्सा था।
नारों का उद्देश्य डर या हिंसा फैलाना नहीं
कोर्ट ने अपनी महत्वपूर्ण टिप्पणी में कहा कि धार्मिक नारों जैसे नारा-ए-तक़बीर, जो बोले सो निहाल, जय श्रीराम, हर-हर महादेव का उद्देश्य श्रद्धा व्यक्त करना होता है, न कि डर या हिंसा फैलाना। किसी भी धर्म में ऐसे नारे, जो दूसरे समुदायों को भयभीत करें या क़ानून के विरुद्ध सज़ा का आह्वान करें, स्वीकार्य नहीं हैं।
सर तन से जुदा नारा इस्लाम की मूल भावना का अपमान
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि पैग़म्बर मुहम्मद के जीवन और आचरण में करुणा, सहिष्णुता और क्षमा सर्वोपरि थी, न कि प्रतिशोध। कोर्ट ने ताइफ़ की घटना का उल्लेख करते हुए कहा कि पैग़म्बर मुहम्मद ने अपने साथ दुर्व्यवहार करने वालों के प्रति भी दया और सद्भाव का मार्ग अपनाया, जो स्त्री उनके मार्ग में रोज कचरा फेंकती थी, उन्होंने उस गैर मुस्लिम महिला के प्रति कोई आक्रोश प्रकट नहीं किया, बल्कि जब वह बीमार पड़ी तो वह उससे मिलने गए और उसकी सेवा की, जिससे प्रभावित होकर उसने इस्लाम अपना लिया। कोर्ट ने पैगंबर साहब के इस व्यवहार का उदाहरण देते हुए कहा कि यदि कोई व्यक्ति सर तन से जुदा जैसे नारे लगाता है, तो वह न केवल भारतीय क़ानून को चुनौती देता है, बल्कि स्वयं पैग़म्बर मुहम्मद की शिक्षाओं और इस्लाम के मूल सिद्धांतों का भी अपमान करता है। अंत में कोर्ट ने स्पष्ट किया कि ऐसा कोई भी नारा या आह्वान, जो क़ानून से इतर ‘मृत्युदंड’ की बात करता है, वह भारत की संप्रभुता, अखंडता और विधि-शासन को खुली चुनौती है और इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दायरे में नहीं रखा जाएगा।
पाकिस्तान के ईश निंदा कानून के ऐतिहासिक संदर्भ का उल्लेख
कोर्ट ने ऐतिहासिक संदर्भ देते हुए बताया कि इस नारे की शुरुआत इस्लामिक धर्मग्रंथों से नहीं, बल्कि पाकिस्तान में राजनीतिक उथल-पुथल से हुई। पाकिस्तान में 1982 और 1986 में ब्लास्फेमी क़ानूनों को अत्यंत कठोर बनाया गया, जहां ईशनिंदा पर मृत्यु-दंड तक का प्रावधान किया गया। मुल्ला खादिम हुसैन रिज़वी ने सबसे पहले पाकिस्तान में 2011 में आसिया बीबी को दोषी ठहराए जाने और पंजाब के गवर्नर सलमान तासीर द्वारा उन्हें दिए गए समर्थन के बाद इस नारे का इस्तेमाल किया था। इसके बाद यह नारा भारत सहित दूसरे देशों में भी फैल गया और कुछ मुसलमानों ने दूसरे धर्मों के लोगों को डराने और राज्य की अथॉरिटी को चुनौती देने के लिए इसका बड़े पैमाने पर गलत इस्तेमाल किया।
कोर्ट ने अभिव्यक्ति की आजादी की सीमा तय की
हाईकोर्ट ने साफ किया कि संविधान अनुच्छेद 19 के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है, लेकिन उसकी सीमाएं भी तय करता है। कोई भी नारा जो कानून से ऊपर जाकर मौत की सजा का ऐलान करे, उसे अभिव्यक्ति नहीं बल्कि अपराध माना जाएगा। अदालत ने कहा कि केस डायरी में पर्याप्त सबूत मौजूद हैं, जिनसे यह साबित होता है कि आवेदक गैरकानूनी सभा का हिस्सा था। पुलिसकर्मियों को चोट पहुंचाई गई, सार्वजनिक और निजी संपत्ति को नुकसान हुआ और धारा 163 का खुला उल्लंघन किया गया। ऐसे में जमानत देने का कोई आधार नहीं बनता। अदालत ने साफ संदेश दिया कि कानून को चुनौती देने वाले नारों और हिंसक भीड़ के प्रति सख्ती बरती जाएगी।
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