कानपुर में बनी थी मुंशी प्रेमचंद की कहानी पर फिल्म "सवा सेर गेहूं"
अमृत विचार, कानपुर । मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखित कहानी "सवा सेर गेहूं" पर कानपुर में पहली फिल्म बनायी गयी थी। बताते हैं कि यह शहर के नावेल्टी टॉकीज में लगी थी। फिल्म "सवा सेर गेहूं" के निर्माता और निर्देशक ने मीडिया वालों को फिल्म के मुख्य अंश दिखाए थे। इस कार्यक्रम का उद्घाटन पूर्वमंत्री राम आसरे कुशवाहा ने मुंशी प्रेमचंद की फोटो पर माल्यार्पण कर किया था।
हिंदी भाषी कलाकारों को मुंबई फिल्म उद्योग में पराई नजर से देखा जाता है तथा वे उपेक्षा का शिकार हमेशा बने रहते हैं, इस कारण से अब हिंदी भाषी कलाकारों में अपने लोगों और प्रदेश के लोगों के बीच फिल्म बनाने की जिज्ञासा बढ़ी है। "सवा सेर गेहूं" का निर्माण उत्साही कलाकारों ने किया था। यूपी में फिल्म बनाने के प्रति लोगों में रुचि बढ़ी है। यह फिल्म इसका उदाहरण है।
मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखित कहानी पर कानपुर के कलाकार व निर्माता संतोष गुप्ता ने साढ़े 32 लाख रुपए खर्च कर फिल्म बना दी। इस फिल्म का निर्देशन कानपुर के दीपक त्रिपाठी ने किया। दीपक त्रिपाठी पिछले 25 वर्षों से मुंबई फिल्म उद्योग में सक्रिय हैं। कई फिल्मों के निदेशक भी रहे। कानपुर में उनकी यह चौथी फिल्म बतायी जाती है। मुंशी प्रेमचंद का फिल्मों से नाता काफी पुराना रहा है। दस्तावेजी प्रमाण है कि मुंशी प्रेमचंद ने मिल मजदूर फिल्म में अभिनय भी किया है।
कानपुर के संतोष गुप्ता मुंशी प्रेमचंद से काफी प्रभावित हैं उन्होंने "सवा सेर गेहूं" फिल्म में संवाद भी दिया है और गीत भी। इस फिल्म में कड़ी मेहनत और लगन के साथ कानपुर और आसपास के कलाकारों ने अपने अभिनय का प्रमाण दिया है फिल्म के मुख्य अंश देखने से एक अच्छी फिल्म प्रतीत होती है, जिसमें कलाकारों से लेकर टेक्नीशियन तक का सामंजस्य अच्छा होने के कारण आकर्षक फिल्म है। सबसे बड़ी बात फिल्म की यह है कि वर्तमान समय में जो सूदखोरी चल रही है उस पर जनता और सरकार का ध्यान केंद्रित करने का भी एक प्रयास है।

शिक्षा विभाग में इंस्पेक्टर रहे मुंशी प्रेमचंद।
ऐसे नाम पड़ गया मुंशी प्रेमचंद
डॉ. जगदीश व्योम के आलेख से पता चलता है कि प्रेमचंद का नाम मुंशी प्रेमचंद कैसे पड़ा? किस्सा कुछ यूं था कि हंस के संपादक प्रेमचंद तथा कन्हैयालाल मुंशी थे। परन्तु कालांतर में पाठकों ने 'मुंशी' तथा 'प्रेमचंद' को एक समझ लिया और 'प्रेमचंद'- 'मुंशी प्रेमचंद' बन गए। यह स्वाभाविक भी है। सामान्य पाठक प्राय: लेखक की कृतियों को पढ़ता है, नाम की सूक्ष्मता को नहीं देखा करता। उसे 'प्रेमचंद' और 'मुंशी' के पचड़े में पड़ने की क्या आवश्यकता थी। फिर कुछ संयोग ऐसा बना कि भ्रम का पक्ष सबल हो गया। वह ऐसे कि एक तो प्रेमचंद कायस्थ थे, दूसरे अध्यापक भी रहे। कायस्थों और अध्यापकों के लिए 'मुंशी' लगाने की परम्परा भी रही है। यह सब मिला कर जन सामान्य में वे 'मुंशी प्रेमचंद' के नाम से जाने जाने लगे। 'मुंशी' न कहने से प्रेमचंद का नाम अधूरा-अधूरा सा लगता है।

मारवणी कालेज में शिक्षक रहे प्रेमचंद।
साल में तीन बार मना सकते हैं प्रेमचंद का जन्मदिन
कानपुर का इतिहास मर्मज्ञ अनूप शुक्ला ने मुंशी प्रेमचंद की जन्मतिथि पर काफी गहरी छानबीन की है। उनका कहना है कि माना जाता है कि भारतीय साहित्य के पर्याय कहे जाने वाले मुंशी प्रेमचंद की जन्म तिथि 31 जुलाई 1880 है। परन्तु इलाहाबाद विश्वविद्यालय द्वारा निर्गमित एन्ट्रेंस परीक्षा के प्रमाण पत्र के अनुसार 20 फरवरी 1899 को वह 17 वर्ष 4 माह के थे। अर्थात उनकी जन्म तिथि 20 अक्तूबर 1881 हुई।

वहीं सरकारी सेवा में आने पर सर्विस बुक में प्रेमचंद की जन्म तिथि 10 अगस्त 1881 स्पष्ट रूप से दर्ज है। यह अत्यन्त आश्चर्यजनक है कि शैक्षणिक प्रमाण पत्र और सर्विस बुक की जन्म तिथि में अन्तर देखा जा सकता है। एक तथ्य यह भी है कि सर्विस बुक में जन्म तिथि स्वयं प्रेमचंद ने ही लिखी हो, इस सम्भावना को भी नकारा नहीं जा सकता। शैक्षणिक प्रमाण पत्र अथवा सर्विस बुक में उपलब्ध जन्म तिथि को नकारते हुए किस प्रमाण के आधार पर प्रेमचंद की जन्म तिथि 31 जुलाई 1880 स्वीकार की गई और प्रचलित की गई।

जन्म तिथि विवाद के प्रमाण पत्र।
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