बरेली: लखनऊ की दौड़ में दो साल चप्पलें घिसीं, सपा सरकार में नहीं मिली नौकरी
बरेली, अमृत विचार। बरेली शहर में दंगों के आरोपी एक नेता की गिरफ्तारी और जमानत की कहानी यह बताने के लिए काफी है कि जिन नेताओं के एक इशारे पर सैकड़ों लोग घरों से निकल पड़ते हैं, खुद उनके लिए सांप्रदायिकता का मतलब कुछ और ही होता है। शहर में कई दिनों से जैसे हालात हैं, उसे देखते हुए बिल्कुल सही वक्त है कि शहर में 2010 और 2012 में हुए दंगों को एक बार जरूर याद कर लिया जाए।
उन परिवारों की सुध ले ली जाए, जो इन दंगों में तबाह हो गए थे और फिर आज तक उनकी जिंदगी पटरी पर नहीं लौट सकी है। दंगों की आग में अच्छा-खासा चलता अपना कारोबार गंवा देने वाले कई व्यापारियों के साथ रबड़ी टोला में इमरान भी एक नाम है जिनकी पुलिस की गोली लगने से जान चली गई थी। ये सभी गवाह हैं कि दंगों की आग में एक बार घिरने के बाद खुद को रहनुमा बताने वाले लोग कहीं नजर नहीं आते। राकेश शर्मा की रिपोर्ट...
पुलिस फायरिंग में इमरान की मौत के साथ डूब गया पूरे परिवार की किस्मत का सितारा
अरमान तो काफी थे, लेकिन अब परिवार के पांचों लोगों की जिंदगी रबड़ी टोला के एक कमरे में सिमटकर रह गई है। यही कमरा इन पांचों के लिए पूरा घर है जो पुश्तैनी बंटवारे में मिला था। इस परिवार ने शहर में दंगा भड़कने के बाद 22 जुलाई 2012 को अपने 22 साल के बेटे इमरान को खो दिया था। इमरान को पुलिस की गोली लगने के साथ पिता हसीन मियां की जिंदगी बेसहारा हो गई और पूरा परिवार की किस्मत का सितारा गहरे अंधकार में डूब गया।
इमरान का जिक्र आते ही हसीन मियां की आंखों से अब भी आंसू बहने लगते हैं। बोले, जरी का काम था। उनकी देखरेख में इमरान ही सबकुछ संभालता था। उसकी मौत ने सबकुछ छीन लिया। उनकी पत्नी हुस्न बानो इतना सदमे में चली गईं कि ठीक होने में महीनों लग गए। इमरान के छोटे भाई-बहनों की पढ़ाई छूट गई। उनका काम भी खत्म हो गया। अब जैसे-तैसे गुजर चल रही है।
डबडबाई आंखों से हुस्न बानो ने बताया कि उनका बेटा इतना सीधा था कि उसे कपड़े भी सिलवाकर देने पड़ते थे। पांच वक्त का नमाजी था। काम संभालता था, इसलिए इधर-उधर से कोई मतलब नहीं था। फिर भी पुलिस की गोली ने उसे छीन लिया। हसीन मियां बोले, कुछ लोग बवाल कराते हैं, बर्बादी बहुतों को भुगतनी पड़ती है।
न शिवपाल ने वादा निभाया न दरगाह वालों ने कोई मदद की
हसीन मियां ने बताया कि जब दंगा हुआ, तब सपा की सरकार थी। सपा नेता शिवपाल सिंह यादव उनके घर आए थे। कहकर गए थे कि परिवार के एक सदस्य को नौकरी दिलाएंगे। इसके बाद दो साल वह लखनऊ दौड़े थे लेकिन कुछ हासिल नहीं हुआ। दरगाह आला हजरत वालों ने भी घर आकर कई वादे किए थे लेकिन किसी ने मदद को हाथ नहीं बढ़ाए। बेटे की मौत पर पांच लाख का सरकार से जरूर चेक मिला था लेकिन किसी और मुड़कर नहीं देखा कि वे किस हाल में रह रहे हैं।
जवान बेटियों का निकाह करना है... मगर सबकुछ अल्लाह पर
तंगी से हसीन मियां के छोटे बेटे सुल्तान और फैसल की पढ़ाई छूट गई। सुल्तान 10वीं पास करने के बाद उनके साथ जरी का काम करने लगा। गहरी सांस लेकर बोले, दो जवान बेटियां हैं, उनका निकाह करना है। घर चलाने के लिए ही इस महंगाई में बहुत मशक्कत करनी पड़ रही है। सबकुछ अल्लाह पर छोड़ दिया है।
किसके आदेश पर चली गोली... 11 साल से चल रही मजिस्ट्रियल जांच
बरेली, अमृत विचार : दंगों के बीच शहामतगंज में बवालियों की भीड़ को काबू में करने के लिए 22 जुलाई 2012 को पुलिस की ओर से की गई फायरिंग में इमरान की मौत हुई थी। ये फायरिंग किसके आदेश पर की गई, यह 11 साल बाद भी नहीं पता चल सका है।
23 अगस्त 2017 को थाना बारादरी से एडीएम एफआर को भेजी रिपोर्ट में कहा गया था कि गोली तत्कालीन एडीएम सिटी के आदेश पर चलाई गई थी लेकिन रिपोर्ट के साथ आदेश की कॉपी नहीं भेजी गई। अगले ही दिन 24 अगस्त को तत्कालीन एडीएम एफआर जगत पाल सिंह ने एसएसपी को पत्र लिखकर आदेश की प्रमाणित कॉपी मांगी थी। यह कॉपी पुलिस की ओर से आज तक नहीं भेजी गई है।
एसएसपी को 8-9 रिमाइंडर भी भेजे जा चुके हैं, लेकिन अब जवाब आना ही बंद हो गया है। इमरान के पिता हसीन मियां ने 23 जुलाई 2012 को थाना बारादरी में रिपोर्ट दर्ज कराई थी कि 22 जुलाई को करीब 11 बजे इमरान कुछ सामान लेकर बाजार से लौट रहा था। चौकी मठ क्षेत्र में फायरिंग और आगजनी हो रही थी, उसी बीच एक गोली इमरान को लगी। अस्पताल ले जाते समय उसकी मौत हो गई थी।
ईश्वर न करे, इस शहर को देखना पड़े फिर वो मंजर
कोहाड़ापीर 2010 के दंगे की आग में सबसे ज्यादा बुरी तरह झुलसा। वक्त के साथ ये निशान मिटते गए लेकिन इस इलाके के तमाम व्यापारियों के जेहन में दो मार्च 2010 की तारीख आज भी इतनी गहराई से दर्ज है कि उसकी याद आते ही उनका दिल कांप उठता है। उस दिन उनकी आंखों के सामने कोहाड़ापीर में 40-45 दुकानें जला दी गई थीं। ऊंची लपटों में वे बेबस होकर खुद को लुटते और बर्बाद होते देखते रहे। कहते हैं, ईश्वर न करे कि वैसा मंजर इस शहर को फिर देखना पड़े।
दंगा पीड़ित रहे व्यापारी कहते हैं कि जैसा बवाल हुआ था, आजादी के बाद उन्होंने कभी नहीं देखा। कई साल तक हर त्योहार उनका दिल दहलाता रहा कि कहीं फिर बवाल न हो जाए। दुकानों में लूटपाट और आगजनी के बीच हर कोई जान बचाने के लिए सुरक्षित जगह ढूंढ रहा था। दंगाइयों ने पुलिस चौकी भी फूंक दी थी। हालात सामान्य होने में करीब दो महीने लगे लेकिन वह मंजर आज भी आंखों में साफ है। व्यापारी आज भी 2010 के दंगे के लिए पुलिस-प्रशासन की ढिलाई को जिम्मेदार मानते हैं। कहते हैं कि कोई तैयारी ही नहीं थी, इसलिए जुलूस-ए-मोहम्मदी के दौरान दंगा शुरू हुआ तो उस पर काबू नहीं पाया जा सका।
पीड़ित व्यापारी कहते हैं कि वह मंजर फिर बरेली को न देखना पड़े, इसलिए सभी की जिम्मेदारी है कि टकराव के हालात न पैदा करें। जोगी नवादा में जो सांप्रदायिक तनाव के हालात को शहर के लोगों को सुलह कराकर सामान्य कराने चाहिए ताकि खुराफात करने वाले अपने मंसूबे में कामयाब न हो सकें। कुछ लोग वोट की राजनीति के लिए जोगी नवादा के लोगाें को ढाल बनाकर माहौल खराब करने की कोशिश कर रहे हैं।
सुनिए जरा, कोहाड़ापीर के दंगा पीड़ितों की सलाह...पुराने दंगे से सबक लें
कोहाड़ापीर में मेरे किराना स्टोर के ऊपर एक मुस्लिम संस्था का बोर्ड लगा था इसलिए वह जलने से बच गया था। अगल-बगल की बाकी सब दुकानें जला दी गई थीं। करीब 15 दिन बाद पुलिस-प्रशासन की घेराबंदी में दुकान खुली तो लोग लाइन में लगकर राशन और घरेलू चीजें लेते थे। करीब दो महीने तक हालात बेहद खराब रहे। सबसे ज्यादा नुकसान व्यापारी वर्ग को हुआ था। इसलिए जोगी नवादा के दोनों पक्षों के लोगों को पुराने दंगों से सबक लेना चाहिए और आपस में सुलह कर बीच का रास्ता निकालना चाहिए--- इंद्र अग्रवाल, व्यापारी।
पूरे शहर ने झेली पीड़ा
दंगाइयों ने हमारी दुकान जला दी थी। लाखों का नुकसान हुआ था। कुछ खुराफात करने वालों की वजह से पूरे शहर ने कर्फ्यू की पीड़ा झेली थी। करीब एक महीने तक इलाके में कर्फ्यू लगा रहा था। घरों में कैद लोग हर चीज के लिए तरस गए थे। दंगा कभी न हो, क्योंकि इसके दुष्प्रभाव सालों झेलने पड़ते हैं। उस वक्त अफसरों को आभास नहीं था कि इतना बड़ा बवाल हो जाएगा। कोहाड़ापीर में जुलूस के दौरान फोर्स बेहद कम था, जोगी नवादा के लोगों काे भी पुराने दंगों से सबक लेने की जरूरत है। - विशाल आहूजा, किराना व्यापारी
एक-दूसरे का साथ दें
पुलिस-प्रशासन की लापरवाही से ही दंगे होते हैं। किसी धर्म का जुलूस निकल रहा हो तो विवादित स्थलों के पास इतना फोर्स लगाना चाहिए ताकि विवाद की चिंगारी सुलगने से पहले दबा दी जाए। 2010 में हुए दंगे में पुलिस-प्रशासन की कमजोरी सामने आई थी। कुछ ही खुराफाती होते हैं जो शहर की फिजा खराब करना चाहते हैं। जोगी नवादा के लोगों को मनमुटाव छोड़कर एक-दूसरे के धार्मिक कार्यक्रम में साथ देना चाहिए। हम लोगों ने कई दंगे झेले हैं। कुछ सालों से शहर की फिजा शांत है, इसे ऐसे ही रखें--- जगदीश चंद्र अग्रवाल, व्यापारी।
दोनों पक्षों को समझना चाहिए, सिर्फ नेताओं को ही होता है फायदा
दंगों की आग में बुरी तरह झुलसे कोहाड़ापीर के एक मेटल कारोबारी के चेहरे पर दंगे की याद दिलाते ही अब भी पीड़ा के भाव उभर आते हैं। नाम न छापने की गुजारिश करते हुए बोले, 2010 के दंगे में एक नेता के इशारे पर उनकी दुकान से लाखों की लूटपाट करने के बाद आगजनी की गई थी।
उन्होंने महसूस किया कि कुछ नेता लोग ही अपने फायदे के लिए ऐसे बवाल कराते हैं। व्यापारियों और आम लोगों के लिए कोई नहीं सोचता। शहर में एक भी ऐसा नेता नहीं है, जो जोगीनवादा में दो बार हुए सांप्रदायिक बवाल के दौरान मौके पर पहुंचा हो। लोगों के फोन करने के बावजूद दूरी बनाए रखी लेकिन बाद राजनीतिक रोटियां सेंकने पहुंच गए थे। कहा कि दोनों पक्षों के लोगों को समझ लेना चाहिए कि पहले हो चुके दो बड़े दंगों से लाखों लोग बर्बाद हुए थे।
2010 का दंगा : संदेह के लाभ पाकर बरी हो गए सभी आरोपी
शहर में 2 मार्च 2010 को हुए दंगे के आरोपी आजमनगर के राजा, शब्बू कुरैशी, फैसल, साजिद बेग, कमर, अब्दुल सलाम और शास्त्री मार्केट के कैफी कुछ साल पहले संदेह का लाभ पाकर कोर्ट से दोषमुक्त हो चुके हैं। कोतवाली में तैनात तत्कालीन एसआई आरके शर्मा ने रिपोर्ट लिखाई थी कि वह जुलूस-ए-मोहम्मदी की ड्यूटी पर तैनात थे।
जुलूस मनिहारन चौक से बासमंडी रोड पर आ रहा था। इसी समय दूसरे संप्रदाय के लोग कटी कुइयां की तरफ से आकर गणेश मंदिर के सामने इकट्ठे हो गए। जुलूस को आगे बढ़ने से यह कहकर रोकने लगे कि उनका जुलूस गुलजार रोड से निकलेगा। इसी पर शुरू हुआ विवाद दंगे में बदल गया। पुलिस ने आरोपियों के विरुद्ध दंगा, बलवा, हत्या के प्रयास जैसी धाराओं में रिपोर्ट दर्ज की थी।
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