अमरोहा : आजादी के दीवाने जहूर अहमद ने सीने पर खाई थीं गोलियां
चांदनी चौक में अंग्रेजों की दुकानों में लगाई थी आग, लाहौर की जेल में भगत सिंह के साथ कई माह काटी थी सजा
जहूर अहमद का फाइल फोटो।
सलमान खान, अमृत विचार। देश को आजादी दिलाने के लिए हुई जंग में अंग्रेजी फौज को धूल चटाने में अमरोहा के लोग भी पीछे नहीं रहे थे। आजादी की लड़ाई में ब्रिटिश हुकूमत की जड़े उखाड़कर उन्हे भागने पर मजबूर करने वालों की फेहरिस्त में एक नाम स्वतंत्रता सेनानी जहूर अहमद का भी है। उन्होंने देश में विदेशी वस्तुओं के बायकॉट की क्रांति में दिल्ली के चांदनी चौक में अंग्रेजों की कपड़े और शराब की दुकानों में आग लगाकर सीने पर कई गोलियां भी खाईं थीं। आंदोलन में गिरफ्तारी के बाद जहूर अहमद ने लाहौर की जेल में क्रांतिकारी भगत सिंह के साथ कई माह की सजा काटी थी।
शहर के मोहल्ला चाहगौरी में जन्मे जहूर अहमद का मिजाज बचपन से ही अलग रहा। गुलामी के दौर में होश संभालने के बाद उन्होंने आजादी के सपने देखने शुरू कर दिए थे। इंडियन नेशनल कांग्रेस के नेताओं से ताल्लुक के बाद पिता जमील अहमद ने जवानी में ही उन्हें जंग-ए-आजादी के हवाले कर दिया। उस वक्त देश के साथ-साथ अमरोहा में भी अंग्रेजी फौज का जुल्म बढ़ रहा था।
इसके विरोध में विदेशी वस्तुओं के बायकॉट करने को लेकर आवाज उठ रही थी। देश की आजादी का तानाबाना बुन रहे क्रांतिकारियों ने अंग्रेजी फौज से इस जुल्म का बदला लेने के लिए दिल्ली की ओर कूच कर दिया था। बगावत का जज्बा लेकर जहूर अहमद भी इस क्रांतिकारी काफिले में शामिल हुए थे। उनके बेटे एजाजुल इस्लाम ने बताया कि उनके पिता ने चांदनी चौक में अंग्रेजों के कपड़े और शराब की दुकान में आग लगा दी थी।
इस दौरान भागते समय ब्रिटिश फौजियों ने उन पर फायरिंग कर दी थी। जिससे उनके सीने में कई गोलियां लगी थीं और वह जख्मी हो गए थे। लेकिन इस आंदोलन में हिस्सा लेने के बाद महात्मा गांधी की नजर में उनकी पहचान बनी। कुछ समय बाद अंग्रेजी फौज ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और लाहौर की जेल में भगत सिंह के साथ रखाा, जहां जहूर अहमद कई माह तक कैद रहे थे।
आजादी के बाद सुविधाओं से किया था इनकार
देश आजाद होने के बाद जहूर अहमद सिर्फ 16 साल ही जिंदा रहे। इस दौरान सरकार से उन्हें स्वतंत्रा सेनानी होने का तमगा भी मिला। लेकिन, खुद्दारी की इंतेहा ये थी कि उन्होंने जंग-ए-आजादी में हिस्सा लेने के एवज में मिलने वाली सरकारी सुविधाएं लेने से इनकार कर दिया था। 1963 में उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया। बाद में उनकी राशिदा खातून को सरकार से पेंशन मिलनी शुरू हुई थी।
कहते थे- यह आजादी के मेडल हैं बेगम
ये अंग्रेजों की गोलियों के छर्रे के निशान नहीं हैं बेगम, आजादी की जंग में मिले मेडल हैं। स्वतंत्रता सेनानी जहूर अहमद पत्नी से बातचीत के दौरान अक्सर यह जुमला भी बोला करते थे। यह जज्बा ही था कि वह आखिरी सांस तक इन्हीं जख्मों को दिखाकर परिवार के संग ही मोहल्ले के लोगों में देश से मोहब्बत का जज्बा पैदा करते रहे।
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