Prayagraj News : सुप्रीम कोर्ट के फैसले का उद्देश्य पक्षकारों को उनके अधिकारों से वंचित करना नहीं

प्रयागराज, अमृत विचार : इलाहाबाद हाईकोर्ट ने तलाक की कार्यवाही में परिवार न्यायालय द्वारा दिखाई गई शीघ्रता को पारदर्शी ना मानते हुए कहा कि कोर्ट ने इस मामले में जिस तरह से जल्दबाजी दिखाई है, उसे स्वीकार नहीं किया जा सकता है। माना कि सुप्रीम कोर्ट ने कार्यवाही में तेजी लाने और 6 महीने के भीतर इसे समाप्त करने का निर्देश दिया था, लेकिन यह निर्देश पक्षकारों द्वारा मांगे गए किसी भी अनावश्यक स्थगन का विरोध करने के लिए था।
सुप्रीम कोर्ट के आदेश का उद्देश्य पत्नी को कार्यवाही का विरोध करने से वंचित करने के रूप में समझना अनुचित है। कोर्ट ने मामले पर विचार करते हुए पाया कि जिस दिन मुकदमे की लागत पत्नी को पहली बार दी गई थी, उसी दिन परिवार न्यायालय ने लिखित बयान दाखिल करने के पत्नी के अधिकार को जब्त कर लिया था। कोर्ट ने माना कि प्रधान न्यायाधीश, परिवार न्यायालय, कानपुर नगर द्वारा मुकदमे की लागत पत्नी तक पहुंचने से पहले ही उसके अधिकार को जब्त करना अनुचित रूप से जल्दबाजी में की गई कार्यवाही प्रतीत होती है। कोर्ट ने यह भी देखा कि पत्नी के केवल एक दिन अनुपस्थित रहने से उसके जिरह करने के अधिकार को जब्त करने जैसा कठोर दंड नहीं दिया जा सकता है।
कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश का उद्देश्य पत्नी को उसके अधिकारों से वंचित करना नहीं था। उक्त आदेश न्यायमूर्ति अश्विनी कुमार मिश्रा और न्यायमूर्ति डोनाडी रमेश की खंडपीठ ने एक याचिका को स्वीकार कर परिवार न्यायालय द्वारा पारित तलाक के आदेश को खारिज करते हुए पारित किया। कोर्ट ने माना कि मामले के शीघ्र निस्तारण के लिए भी पक्षकारों को सुनवाई का उचित अवसर दिया जाना चाहिए। कोर्ट ने निर्देश दिया कि मामले में साप्ताहिक तिथियां तय की जाएं और यदि कोई स्थगन हो तो उसे प्रतिदिन कम से कम एक हजार रुपए जमा कराने की शर्त पर दिया जाए। मामले के अनुसार पक्षकारों का विवाह वर्ष 2015 में हुआ और वर्ष 2016 में पत्नी पर व्यभिचार का आरोप लगाते हुए दिल्ली के कड़कड़डूमा में तलाक की कार्यवाही शुरू की इसके बाद अपीलकर्ता/पत्नी ने कानपुर नगर, उत्तर प्रदेश में कार्यवाही स्थानांतरित करने की मांग करते हुए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने पक्षकारों को अनावश्यक स्थगन दिए बिना 6 महीने के भीतर मामले के निस्तारण का आदेश दिया।
इसके बाद अपीलकर्ता ने भरण- पोषण के भुगतान के लिए हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 24 के तहत आवेदन दाखिल किया तथा मुकदमेबाजी के खर्च की भी मांग की, जिस पर सुनवाई करते हुए पत्नी को 10 हजार रुपए का मुकदमा खर्च दिया गया, लेकिन भरण- पोषण का आवेदन अस्वीकार कर दिया गया। मार्च 2019 में मामले तय किए गए और मई 2019 में तलाक की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा पारित आदेश को ध्यान में रखते हुए परिवार न्यायालय ने पति के पक्ष में निर्णय सुना दिया, जिसे चुनौती देते हुए अपीलकर्ता ने वर्तमान अपील दाखिल की और तर्क दिया कि उसे कार्यवाही का विरोध करने का पर्याप्त अवसर नहीं दिया गया।
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