तीर्थराज प्रयागराज की है अद्भुत महिमा, क्या है प्रयागराज का अर्थ? यहां जानिए...

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Published By Nitesh Mishra
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कानपुर, अमृत विचार। तीर्थराज प्रयागराज की महिमा जानने से पूर्व यह जानना आवश्यक है कि ‘तीर्थयात्री’ कौन होता है। तीर्थ शब्द ‘तृ’ धातु से निर्मित हुआ है, जिसका अर्थ तैरना है। यात्रा शब्द की उत्पत्ति ‘या’ धातु से हुई है, जिसका अर्थ है कहीं गमन करना या जाना। इस प्रकार तीर्थयात्री वह है जो जीवन रूपी भवसागर को तैरकर पार कर जाता है।

प्रयाग शब्द ‘प्र’ और ‘यज्’ धातु के योग से बना है। यज् धातु से निर्मित याग शब्द के कई अर्थ निकलते हैं जैसे- यज्ञ के द्वारा देवता की पूजा करना, संगति करना या दान देना। ऐसा स्थान जहां कोई वृहद यज्ञ किया गया हो, वह प्रयाग है। पुराणों के अनुसार ब्रह्मा जी ने यहां यज्ञ किया था।

ज्योतिषाचार्य पं. मनोज कुमार द्विवेदी ने बताया कि तीर्थराज प्रयाग की महिमा गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस के अयोध्याकाण्ड में भी बताई है। गोस्वामी तुलदीदास ने प्रयागराज को परमार्थ प्रदान करने वाले एक राजपुरुष के रूप में चित्रित किया है।

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अयोध्याकाण्ड का प्रसंग इस प्रकार है कि जब भगवान राम सीताजी और लक्ष्मण जी सहित वनवास के लिए निकले तो सुमंत्र को विदा करने के पश्चात् उन्होंने नाव से गंगा पार की, केवट को भक्ति का वरदान दिया, गंगा से आशीर्वाद लिया और प्रयाग पहुंचे। 

गोस्वामी तुलसीदास ने प्रयाग की महिमा का वर्णन करते हुए बताया है कि गंगा यमुना सरस्वती का संगम ही तीर्थराज का सिंहासन है, अक्षयवट वृक्ष उनका छत्र है, गंगा जी और जमुना जी की तरंगे (लहरें) चँवर हैं, जिन्हें देखकर ही दुःख दरिद्रता का नाश हो जाता है: “संगमु सिंहासनु सुठि सोहा। छत्रु अखयबटु मुनि मनु मोहा।। चवँर जमुन अरु गंग तरंगा। देखि होहिं दुख दारिद भंगा।“

इसके आगे है: “सेवहिं सुकृति साधु सुचि पावहिं सब मनकाम। बंदी बेद पुरान गन कहहिं बिमल गुन ग्राम।।“ अर्थात् पुण्यात्मा साधू प्रयागराज की महिमा गाते हैं और वेद पुराण सब मिलकर उसके निर्मल गुणों का बखान करते हैं। गोस्वामी जी कहते हैं: “को कहि सकइ प्रयाग प्रभाऊ। कलुष पुंज कुंजर मृगराऊ।। अस तीरथपति देखि सुहावा। 

सुख सागर रघुबर सुखु पावा।।“ अर्थात्- प्रयागराज की महिमा कौन कह सकता है ? यदि पाप रूपी मदमस्त हाथियों का समूह सब कुछ नष्ट करने पर तुला हो तो सिंह रूपी तीर्थराज प्रयाग उनका वध कर सकता है। ऐसे तीर्थराज का दर्शन कर स्वयं प्रभु श्रीरामचन्द्रजी ने भी सुख पाया।

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