48 साल पुराने हत्या मामले में आरोपियों की दोषसिद्धि को हाईकोर्ट ने किया खारिज

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Published By Deepak Mishra
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प्रयागराज। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 48 साल पुराने हत्या के एक मामले में दो लोगों की दोषसिद्धि को खारिज करते हुए कहा कि जब एक ही घटना में अभियुक्त और शिकायतकर्ता दोनों को चोटें आती हैं और अभियोजन पक्ष द्वारा अभियुक्त को लगी चोटों के बारे में स्पष्टीकरण नहीं दिया जाता है, तो इससे संदेह पैदा होता है कि क्या घटना की वास्तविक उत्पत्ति और प्रकृति को पूरी तरह और ईमानदारी से प्रस्तुत किया गया है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि इस तरह स्पष्टीकरण न देने का महत्व हर मामले में अलग-अलग होता है। कुछ मामलों में स्पष्टीकरण न देने से अभियोजन पक्ष को गंभीर रूप से कमजोर किया जा सकता है, वहीं किसी अन्य मामले में अभियोजन पक्ष की समग्र मजबूती पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। रिकॉर्ड पर रखी गई सामग्री और प्रस्तुत किए गए तर्कों पर विचार करने के बाद कोर्ट ने कहा कि यदि अपीलकर्ताओं के खिलाफ आरोपों को सत्य मान लिया जाए, तो भी वे निजी प्रतिरक्षा के अधिकार के तर्क के आधार पर बरी किए जाने के हकदार हैं।यद्यपि मामले में वर्णित कथित घटना में कई लोग घायल हुए थे और एक व्यक्ति की मृत्यु भी हुई थी, लेकिन अभियोजन पक्ष ने घटना के मूल कारण को साबित नहीं किया था, जिससे अभियोजन पक्ष का मामला संदिग्ध हो गया। उक्त आदेश न्यायमूर्ति विवेक कुमार बिड़ला और न्यायमूर्ति नंद प्रभा शुक्ला की खंडपीठ ने लखन और देशराज की अपील को स्वीकार करते हुए पारित किया। मामले के अनुसार 6 अगस्त 1977 को राजाराम द्वारा दर्ज एफआईआर  में आरोप लगाया गया था कि एक दिन पहले उसके चचेरे भाई (प्राण) पर तालाब पर नहाने जाते वक्त चार ग्रामीणों (लाखन, देशराज, कलेश्वर और कल्लू) ने  लाठियों से हमला किया था।विवाद सूचनाकर्ता और आरोपी देशराज के बीच पुरानी दुश्मनी से उपजा था। अगस्त, 1980 में मामला सत्र न्यायालय को सौंप दिया गया और प्रभु की हत्या के लिए सभी चार आरोपियों के विरुद्ध आईपीसी की धारा 302 के साथ 34 के तहत आरोप तय किए गए। ट्रायल कोर्ट के समक्ष आरोपी/अपीलकर्ताओं ने स्वीकार किया कि उन्होंने निजी बचाव के अपने अधिकार का प्रयोग करते हुए मृतक/प्रभु पर हमला किया था । अंत में कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि ट्रायल कोर्ट अभियोजन पक्ष के मामले में मुख्य कमियों पर उचित रूप से विचार करने में विफल रही। इसके साथ ही अभियोजन पक्ष ने जिस क्रम और तरीके से घटना का वर्णन किया है, वह असंभव प्रतीत होता है, जिससे अभियोजन का मामला और कमजोर होता है।

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