!! धर्म का मर्म!!

Amrit Vichar Network
Published By Anjali Singh
On

मनुष्य को क्या करना चाहिए और क्या नहीं, इसके लिए शास्त्र ही प्रमाण हैं, क्योंकि वेद और शास्त्र स्मृतियां भगवान की आज्ञा हैं। सृष्टि संचालन के लिए ईश्वर को विधान बनाना पड़ता है, उसी शासन विधान का नाम शास्त्र है। विश्व संचालन की विद्या इन धर्म शास्त्रों में समाहित है।

।।धर्मो विश्वास्य जगत: प्रतिष्ठा।।

इस प्रकार धर्म और इसके शास्त्र शाश्वत हैं, सनातन हैं। यही सनातन धर्म संपूर्ण जगत का जीवन है। सूर्य में प्रकाश,अग्नि में दाहक शक्ति, चंद्रमा में शैतल्य,अमृत में अमृत्व,पृथ्वी में क्षमा, मानव में मानवता समेत विभिन्न धर्मों के रूप में यही एक सनातन धर्म अवस्थित है। यही सनातन धर्म सार्वभौम विश्व धर्म या आत्मधर्म है, जो आत्म कल्याणकारी होने के साथ साथ सर्वभूत हितमय है। विचारणीय बात यह है कि जीव पशु-पक्षी कीट-पतंगे तथा तिर्यक आदि 84 लाख योनि में भटकता हुआ भगवत्कृपा से मानव शरीर प्राप्त करता है। इस योनि में उसे कर्म करने का सामर्थ्य प्राप्त होता है, पर इस सामर्थ्य का वह कितना प्रयोग करता है, यह उस पर निर्भर है।

यदि मानव जीवन पाकर स्वेच्छाचारिता पूर्वक भोग विलास में जीवन बिता दिया और शास्त्र रूपी भगवदाज्ञा के अनुसार जीवन चर्या नहीं चलाई तो पुनः उन समस्त कूकर-सूकर आदि तिर्यक योनि में दुख रूप जीवन व्यतीत करना पड़ेगा। मनुष्य आज पशुओं से भी निकृष्ट जीवन यापन कर रहा है। आहार-विहार विचार सब मानवीय सिद्धांत के विपरीत है, बल्कि पशुओं को अपने धर्म का आहार आदि का बोध है, पर मनुष्य को नहीं । आप और कुछ बने न बनें, किंतु आप मानव बन गए तो आप धर्म शास्त्र पथ से भ्रष्ट नहीं होंगे। वास्तव में धर्म वह है जिसके परिणाम में अपना और दूसरों का हित होता है। अधर्म वह जिसमें अपना और दूसरों का अहित होता है।

  परहित सरिस धर्म नहि भाई। पर पीड़ा सम नहि अघमाई।।

सत्य, सदाचार और परहित धर्म का मूल है। माता-पिता, पुत्र और पत्नी के धर्म अलग अलग है, पर सभी एक दूसरे का हित और परस्पर सुख पहुंचाने वाले ही होंगे।

।। नि:स्वार्थता ही धर्म की कसौटी है।। 

जो जितना निस्वार्थी है वो उतना ही आध्यात्मिक और धार्मिक है। आज संसार में अनैतिक आचार व्यवहार स्वार्थ की पराकाष्ठा है। धार्मिक संस्कार लुप्तप्राय हो रहे है। जिसमें सर्वत्र ही काम क्रोध लोभ मोह मद गर्व अभिमान, द्वेष, ईर्ष्या, हिंसा परोत्कर्ष पीड़ा दलबंदिया अधर्म युद्ध आदि सभी अधर्म के विभिन्न स्वरूपों का तांडव नृत्य हो रहा है। तो पता नहीं पतन कितना गहरा होगा। अतः मनुष्य धर्म शास्त्रों का आलंबन लेकर पाप पुण्य नीति अनीति की पहचान की सामर्थ्य प्राप्त कर सके तथा देव पितृ गुरु आदि के प्रति अपना कर्तव्य समझ सके यही धर्म का वास्तविक मर्म है। चन्द्रेश जी महाराज, (चंद्रदास)

ये भी पढ़े : जनकपुर के बिना अधूरी है अयोध्या