आपबीती: हम रखते थे शिक्षकों के अजूबे निक नेम 

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Published By Anjali Singh
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उत्तर प्रदेश सैनिक स्कूल, लखनऊ में मेरा एडमिशन वर्ष 1987 में हुआ था। जिसे अब मनोज पांडे पीवीसी कहा जाता है। हम लोग हॉस्टल में रहते थे। हमारे दिन की शुरुआत सुबह 5:30 से हो जाती थी। इसके बाद छह बजे पीटी के लिए सब लोग लाइन में लग जाते थे। हमें रोजाना दो से तीन किलोमीटर की दौड़ लगानी पड़ती थी। पीटीआई की निगरानी में 6:45 बजे तक व्यायाम भी करते थे। इसके बाद हम अपने-अपने हाउस में लौट जाते थे। वहां स्नान आदि करने के बाद स्कूल यूनिफॉर्म पहनकर 7:30 बजे तक मेस के लिए मार्च करते थे। असेंबली हॉल में 8:15 बजे प्रिंसिपल, शिक्षक और कैडेट्स  की उपस्थिति में असेंबली शुरू होती थी। फिर नौ बजे से शैक्षणिक क्लासेस शुरू हो जाती थी, जो दोपहर 1:30 तक चलती थी। 

स्कूल में छह से सात क्लासेस होती थी, जिसके बाद सारे कैडेट्स मार्च करते हुए मैच के लिए प्रस्थान करते थे। लंच अमूमन 2:00 तक चलता था। इसके बाद कैडेट संबंधित हाउस में चले जाते थे। 4:00 तक रिलैक्स टाइम होता था। 4:30 से 6:00 तक गेम पीरियड होता था। हम लोग फुटबॉल, वालीबॉल, हॉकी, क्रिकेट, बास्केटबॉल जैसे खेल खेलते थे। उसके बाद सब अपने-अपने हाउस के लिए प्रस्थान कर जाते थे। नहाने धोने के बाद 6:30 से आठ के बीच ट्रिप क्लासेस चलती थी। रात आठ बजे डिनर के लिए वापस मेस जाना पड़ता था। रात 10:30 के बाद कमरे की सारी लाइट बंद कर दी जाती थी, जो कि सोने का समय होता था।

सैनिक स्कूल की रूटीन हुआ करती थी कि हम रोज का शेड्यूल पूरा करने में ही निहाल हो जाते थे। रोज सुबह-सुबह उठना हमारे लिए अग्नि परीक्षा के समान था। हम उस दौरान सोने के लिए एक-एक मिनट चुराने की कोशिश करते थे। मेरा हाउस किदवई हाउस के नाम से जाना जाता था, जो की कानपुर रोड से लगा हुआ था। पूरी रात ट्रकों की आवाज से हमारा हॉस्टल गूंजता रहता था, लेकिन दिनभर की थकान के आगे ट्रकों की आवाज एक म्यूजिक की तरह लगती थी। जिस वर्ष मैं सैनिक स्कूल में एडमिशन लिया, उस समय स्कूल में रैगिंग चरम सीमा पर थी। सीनियर-जूनियर का रिश्ता ऐसा था, जैसे युद्ध में दो योद्धा आमने-सामने हों, जिसमें एक योद्धा शेर के समान और दूसरा बकरी के समान। हम लोग जहां भी सीनियर्स को देखते थे, रुक जाते थे।

सैनिक स्कूल ने जिम्मेदार नागरिक बनाने के लिए क्रेडिट की ट्रेनिंग शुरू किया गया था। यहां हर एक्टिविटी के पीछे अनुशासन, ऑल राउंड पर्सनैलिटी डेवलपमेंट करने की ट्रेनिंग दी जाती है। ऐसे में स्कूल के अनुशासन को संभालने की जिम्मेदारी सीनियर बैच के कैडेट 11 और 12 क्लास के कैडेट की हुआ करती थी। हर हाउस में, जो अच्छे सीनियर्स होते थे, उनकी देखरेख में हम लोगों को रखा जाता था। ऐसे में स्कूल के भीतर होने वाली अलग-अलग प्रतियोगिताओं में संबंधित हाउस की जीत की जिम्मेदारी भी इन्हीं सीनियर्स के कंधों पर होता था। लंच के बाद के समय हमारी एनसीसी की हफ्ते में 2 से 3 दिन परेड हुआ करती थी। मैं आर्मी वेंकटरारेड था आर्मी विंग के इंस्ट्रक्टर उन दिनों आरपी शुक्ला हुआ करते थे। वह हमारे केमिस्ट्री टीचर भी हुआ करते थे। उनको जब पहली बार एनसीसी की ड्रेस में देखें, तो बड़ा अचंभा हुआ। मैं तुरंत पहचान भी नहीं पाया, वह उस समय के सबसे अनुशासित शिक्षक हुआ करते थे।

सीनियर्स के द्वारा हम लोगों को पता चला कि कुछ टीचरों के निक नेम भी हैं। उस समय जो हमारे रजिस्ट्रार हुआ करते थे, उनका नाम सब लोग रज्जो कहकर पुकारते थे। उसी समय के प्रिंसिपल को पिल्लू नाम से बुलाते थे। बहरहाल, मुझे इन नाम से इत्तेफाक नहीं था। सातवीं क्लास में हमारे रूम में चंदन जायसवाल और मयंक मयूर साथ-साथ रहते थे। चंदन जायसवाल जौनपुर का रहने वाला था और मयंक मयूर महोबा का बाद में मयंक मयूर का सिलेक्शन एनडीए के थ्रू एयर फोर्स में हुआ, जो की कश्मीर में प्लेन एक्सरसाइज में हादसा होने के दौरान वीरगति को प्राप्त हुआ। सैनिक स्कूल में सितंबर और अक्टूबर माह में हर साल लखनऊ से दूर जाया करता था। हम लोग पूरा उत्तराखंड घूमे। आठवीं क्लास में पूरा राजस्थान, जिसमें जयपुर, जोधपुर इत्यादि जबकि नवीं क्लास में हम लोगों का टूर बॉम्बे और पुणे गया। 

उस समय दूरदर्शन में हर रविवार एक सीरियल आता था, जिसका नाम परमवीर चक्र विजेता था। स्कूल की तरफ से हर हॉस्टल में एक रूम एलॉटेड था, जिसको एंटी रूम कहा जाता था। सीनियर हाउस टंडन हाउस में मनोज पांडे (कैप्टन मनोज पाण्डेय, कारगिल में वीरगति) था और मैं किदवई हाउस में था। हर रविवार हम लोग बड़े चाव से परमवीर चक्र विजेता सीरियल को देखा करते थे। एक बार मुझे याद है कि एक सीरियल को देखते हुए बड़ी जोर से मनोज पांडे चिल्लाता हुआ पीछे की तरफ आया कि मैं भी परमवीर चक्र विजेता बनूंगा, जबकि उसको मालूम था की परमवीर चक्र ज्यादातर लोगों को मरणोपरांत ही मिलता है। उसकी देशभक्ति और देश निष्ठा स्कूल के समय से ही दिखाई देती थी। 

वह सभी कैडेट से बिल्कुल अलग था चाहे पढ़ाई हो, चाहे देश सेवा का जज्बा सब में वह हमेशा अव्वल रहता था। मुझे गर्व है कि वह छह वर्ष तक सैनिक स्कूल में मेरा साथी रहा, मेरा बैचमेट रहा। वर्ष 1993 में इंटरमीडिएट होने के बाद हम लोग पास आउट हुए, लेकिन कितने दिनों में जितने भी स्कूल मैंने देखे हैं सैनिक स्कूल जैसा अनुशासन मुझे कहीं नहीं मिला। आज भी सैनिक स्कूल में बिताए हुए छह वर्ष रह-रह कर याद आते हैं। मेरा मानना है कि आज के युवाओं को सैनिक स्कूल जैसा अनुशासन देना चाहिए। कक्षा 10 के बोर्ड के बाद फिल्म देखने का भी शौक चढ़ा। ऐसा शौक चढ़ा की रात को दीवार फांदकर हजरतगंज पहुंच जाते थे, जो की स्कूल से 15 किलोमीटर दूर था।-संदीप पाण्डेय, उच्च न्यायालय, लखनऊ