लखनऊ और उत्तराखंड: प्रवासी समाज की साझा सांस्कृतिक विरासत

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Published By Anjali Singh
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कभी उत्तर प्रदेश के पर्वतीय अंचल के नाम से जाना जाने वाला वर्तमान का उत्तराखंड राज्य आज बहुत तेजी से वर्तमान में बीजेपी के युवा मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के नेतृत्व में अपने मूल स्वरूप देव संस्कृति अथवा उत्तराखंड की सनातन संस्कृति की जड़ों की ओर लौट रहा हैं, लेकिन उत्तराखंडी निवासियों एवं प्रवासी बंधुओं का आजादी के पहले से स्वतंत्रता आंदोलनों में तथा उसके बाद आजादी के बाद के भौगोलिक राजनैतिक तथा सामाजिक परिदृश्य में उत्तर प्रदेश और उसकी राजधानी लखनऊ से हमेशा से एक गहरा नाता रहा है, जो कि आज एक बड़ी विरासत के रूप में हमारे सामने है। कभी एक समय विकास से कोसों दूर रहे उत्तराखंड के सुदूर पहाड़ी अंचलों के कठिनाई भरे जीवन ऊबड़-खाबड़ पथरीले रास्तों में जीवन की डगर बहुत मुश्किल थी, ऐसे में आजादी के पहले से ही उत्तराखंड के मूल निवासियों का रोजी, रोटी, रोजगार की तलाश में अपनी जमीन से लगातार पलायन होने से राजधानी दिल्ली सहित देश के कोने-कोने में जाकर बसने वाले के एक नए प्रवासी उत्तराखंडी समाज का निर्माण हुआ, जो देश विभिन्न राज्यों में स्थित प्रमुख शहरों में अपने बच्चों के अच्छे भविष्य, बेहतर शिक्षा तथा मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए बसने लगा, पहाड़ की संस्कृति और पहचान से विशेष अनुराग होने के कारण प्रवासी उत्तराखंडी समाज हमेशा सांस्कृतिक और सामाजिक रूप से अपनी जड़ों से जुड़ा रहा है। - मोहन बिष्ट, समाजसेवी

राष्ट्र के प्रति पूर्ण निष्ठा एवं समर्पण तथा राष्ट्रीयता की भावना से ओत-प्रोत स्वभाव से सीधे सरल, मेहनती और ईमानदार होने के कारण धीरे-धीरे बड़ी संख्या में उत्तराखंडी प्रवासी समाज के लोग, देश की गौरवशाली सेना सहित, समाज के विभिन्न क्षेत्रों सामाजिक, राजनैतिक, कला, साहित्य, सिनेमा शिक्षा, खेल जगत, व्यवसाय, नौकरी तथा प्रशासनिक सेवा इत्यादि में देश के विकास और समृद्धि के लिए निरंतर अपना महत्वपूर्ण योगदान देने लगे, जो आज भी बदस्तूर जारी है। उत्तर प्रदेश का ही अंग होने के कारण राजधानी लखनऊ के विकास और समृद्धि में भी उत्तराखंडी प्रवासी बंधुओं के महत्वपूर्ण योगदान को नकारा नहीं जा सकता है। आज भी एक अनुमान के अनुसार लगभग 5 लाख से अधिक संख्या में लखनऊ की दो लोकसभा सीटों के अंतर्गत आने वाले 9 विधानसभा क्षेत्रों में उत्तराखंडी प्रवासी बंधुओं की बस्तियां हैं, जिसमें बड़ी संख्या में उत्तराखंड के प्रवासी बंधु बहुत ही प्रेम और सौहार्द से रहते हैं। पर्वतीय समाज की उपलब्धि और योगदान इसी बात से परिलक्षित होता है कि वर्तमान में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और लखनऊ की महापौर श्रीमती सुषमा खर्कवाल भी इसी उत्तराखंडी प्रवासी समाज से ही आते हैं। इसके अलावा लखनऊ में प्रवासी उत्तराखंडी समाज की जड़े गहरे तक अपनी पैठ बनाए हुए हैं।

उत्तराखंडी प्रवासी बंधुओं का उत्तराखंड के क्षेत्र से पलायन कर देश के मैदानी क्षेत्रों बसने के समय और उद्देश्य को तीन काल खंडों और प्रमुख आवश्यकताओं के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। प्रथम 40 से 60 के दशक में रोजी-रोजगार प्रमुख आवश्यकता जीवनयापन की विभीषिका से रोटी के लिए जद्दोजहद थी। दूसरा 70 से 90 का दशक अच्छी शिक्षा रोजगार और परिवार के अच्छे भविष्य के लिए स्थाई निवास की जद्दोजहद थी तथा 90 के दशक के अंतिम वर्षों में उत्तराखंड अलग राज्य की मांग ने जोर पकड़ा और लखनऊ का उत्तराखंडी प्रवासी समाज की उत्तराखंड राज्य आंदोलन के समर्थन में कूद पड़ा। 

9 नवंबर सन् 2000 में उत्तराखंड को अलग राज्य का दर्जा मिला। 2000 से 2020 के दशक में वर्तमान तक सांस्कृतिक सामाजिक उत्थान और ऊंचे-ऊंचे सपनों को पंख लगना तथा उत्तराखंडी प्रवासी समाज में उच्च पद और सामाजिक सम्मान पाने की जद्दोजहद में उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ भी इससे अछूता नहीं रहा है। 40 से 50 के दशक में, जहां एक ओर पूरे देश में उत्तराखंडी प्रवासी समाज के लोगों ने समाज के हर क्षेत्र में अपनी योग्यता साबित की है, बल्कि देश में विभिन्न क्षेत्रों में महत्वपूर्ण स्थान बनाया। वहीं राजधानी लखनऊ में भी प्रवासी बंधु सामाजिक संस्कृतिक सहित विभिन्न क्षेत्रों में अपनी उपलब्धियों से स्थानीय समाज के लोगों को भी आकर्षित करते रहते हैं।

उत्तराखंडी प्रवासी समाज की विरासत 

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ उत्तराखंडी प्रवासी समाज और संस्कृति की लंबी विरासत की गवाह है। आजादी से पहले चाहे लखनऊ हुए में स्वतंत्रता आंदोलनों में बढ़-चढ़कर प्रतिभाग हो, सुदूर उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों को छोड़कर रोजी-रोटी की जद्दोजहद से अपनी कड़ी मेहनत और ईमानदारी के बल पर सुंदर उत्तराखंडी संस्कृति और समाज की रचना हो अथवा आज सामाजिक और सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र बने विभिन्न उत्तराखंडी संगठनों के अपने निजी प्रयासों से खड़े सुंदर-सुंदर भवन और भव्य मंदिर-देवालय हों तथा इसके अलावा लखनऊ के विभिन्न क्षेत्रों में फैली उत्तराखंडी प्रवासी बंधुओं के संघर्ष समर्पण और हाड़-तोड़ मेहनत से बसाई गई प्रवासी बस्तियां हो, समाज के प्रबुद्ध वर्ग, जिसने साहित्य कला-संगीत के क्षेत्र में विभिन्न प्रकार के आयोजनों और पुस्तक की रचना से लखनऊ को कला और सांस्कृतिक रूप समृद्ध किया। आजादी के पहले संयुक्त प्रांत के प्रधानमंत्री तथा आजादी के बाद नवगठित उत्तर प्रदेश राज्य के प्रथम मुख्यमंत्री बने अपने राजनैतिक कौशल, जनता के लिए समर्पित जुझारू तथा आमजन में लोकप्रिय ‘भारत रत्न’ पं. गोविंद बल्लभ पंत, वीरचंद सिंह गढ़वाली, जन लोकप्रिय राजनेता पूर्व मुख्यमंत्री स्व. हेमवती नंदन बहुगुणा, विकास पुरुष एवं पूर्व मुख्य मंत्री स्व. नारायण दत्त तिवारी सहित समाज के विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत विभूतियां, जो आज हमारे बीच नहीं हैं।  लखनऊ पीढ़ी-दर-पीढ़ी उत्तराखंडी संस्कृति एवं लोगों की सक्रियता और समर्पण से और अधिक तेजी से विकसित व समृद्ध हुआ। आज ये सभी राजधानी लखनऊ में आने वाली पीढ़ी को उत्तराखंडी प्रवासी बंधुओं की दी हुई विरासत है। इसके अलावा वर्ष भर कला-संस्कृति और साहित्य के क्षेत्र में बड़े-बड़े आयोजनों विभिन्न क्षेत्रों में उत्तराखंडी शैली में श्री रामलीलाओं का मंचन हो अथवा बड़े-बड़े मेले महोत्सव, जिसमें प्रमुख रूप से प्रत्येक वर्ष होने वाले उत्तरायणी मेला, उत्तराखंड महोत्सव और मुनाल महोत्सव से साथ-साथ विभिन्न साहित्यिक और समाज समागम से लखनऊ का संपूर्ण जनमानस जुड़ता है। सभी आयोजनों में तन-मन और धन से प्रतिभाग भी करता है। स्थानीय संस्कृति और उत्तराखंड की संस्कृति एवं लोग मानो एक ही रंग में रंग गए हों।

प्रवासियों की आने वाली पीढ़ी के लिए धरोहर 

उत्तराखंड की संस्कृति और समाज, सांस्कृतिक और सामाजिक रूप से समृद्ध और हमेशा से अपनी संस्कृति के प्रति सजग और समर्पित रहा है, जिसके फलस्वरूप लखनऊ में निवास करने वाले उत्तराखंडी प्रवासी बंधु क्षेत्र के विकास के लिए कभी भी केवल सरकार पर आश्रित नहीं रहे, बल्कि अपनी संस्कृति के प्रदर्शन और सामाजिक सांगठनिक एकता के बल पर अपने स्वयं के प्रयासों से लखनऊ के विभिन्न क्षेत्रों में उनके द्वारा बनाए गए सामुदायिक केंद्र, संगठनों के भवन और भव्य मंदिर तथा देवालय पूरे क्षेत्र के स्थानीय और प्रवासी बंधुओं को लाभान्वित करते हैं। इनकी स्थापना करने वाली लगभग अधिसंख्य प्रवासी विभूतियां आज हमारे बीच में नहीं हैं, लेकिन वर्तमान समय में उनकी पीढ़ी, उनकी धरोहर को बखूबी संभाल रही है। इन सभी के माध्यम से आगे आने वाली पीढ़ी को उनके पूर्वजों द्वारा दी गई धरोहर को संभालने के लिए प्रशिक्षित भी कर रही है।

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