चैत्र नवरात्रि: भक्त राजमिस्त्री के नाम से जानी जातीं ‘माता महेश्वरी’
नौ दिनों तक मंदिर परिसर में श्रद्धालु खिलाते कन्याओं को हलवा और पूड़ी का प्रसाद
पवन तिवारी
बांदा, अमृत विचार। शहर में भक्तों की आस्था व श्रद्धा का प्रतीक माता महेश्वरी का भव्य दरबार यहां प्रचलित गंगा-जमुनी तहजीब का जीवंत और अप्रतिम उदाहरण है। मंदिर के निर्माण से जुड़ी कहानी जनपद में सांप्रदायिक सद्भाव की अनूठी मिसाल है। मंदिर निर्माण की विशेषता यह है कि इसका निर्माण करने वाला राजमिस़्त्री हिंदू था, लेकिन यहां धन बांदा नवाब ने लगाया। आज माता उसी के नाम से जानी जाती हैं। वैसे तो ऐसा कोई दिन नहीं जब यहां सुबह चार बजे प्रथम पूजा के लिये श्रद्धालुओं में होड़ न लगती हो, लेकिन नवरात्र में भक्तों की यह इच्छा और प्रबल हो जाती है। भक्तों का विश्वास है कि वे जो भी मन्नत मांगते हैं मां उसे जरूर पूरा करती है।
बताते हैं, कि ऐतिहासिक महेश्वरी देवी मंदिर के स्थान पर कभी प्राचीन तालाब किनारे एक छोटी सी मढ़िया थी। अपनी रोजी कमाने को कन्नी-बसूली का झोला लेकर घर से बाहर पैर निकालने के बाद राजमिस्त्री महेश्वरी इस मढ़िया में शीश नवाने के बाद ही काम शुरू करता था। उसके नित्यक्रम से मां उस पर कब प्रसन्न हो गईं वह स्वयं भी नहीं जान पाया। एक रात मां ने उससे स्वप्न में कहा कि तालाब में सात सोने के कलश गड़े हैं। वह उसे खुदवा ले और उसकी मढ़िया की जगह एक भव्य मंदिर का निर्माण करवा दे। स्वप्न टूटा तो वह असमंजस में पड़ गया। उसे लगा मानो किसी ने उसके दुर्दिनों को बदल देने का आमंत्रण दिया हो, लेकिन मन को बस एक ही बात बार-बार कचोट रही थी, कि वह देवी भक्त है। सोने के कलश देख कहीं उसके मन में लोलुपता का भाव न जाग जाये। उसने जब यह बात अपनी पत्नी को बताई तो उसकी खुशी का ठिकाना ही न रहा। पति से बोली दोनों मिलकर उस गड़े धन को खोद लेते हैं। महेश्वरी ने ऐसा करने से साफ शब्दों में इन्कार कर दिया। पत्नी ने जब उसे माता का आदेश न मानने पर कोप झेलने की दुहाई दी तो महेश्वरी स्वप्न में दिये मां के आदेश को मानने के लिये विवश हो गया, लेकिन गड़े धन को निकालने का विचार मन से त्याग दिया। उन दिनों राजमिस्त्री महेश्वरी बांदा नवाब अली बहादुर द्वितीय की कोठी में मासिक पगार पर काम करता था। बांदा नवाब उसकी कारीगरी के हुनर से खासे प्रभावित थे। महेश्वरी की आर्थिक स्थिति तो पहले से ही खराब थी, उस पर अब उसने माता के मंदिर के निर्माण की जिम्मेदारी खुद पर ले ली, इससे वह पशोपेश में रहने लगा। फिर भी उसने काम से जी नहीं चुराया। नवाब के यहां से वह रोज एक-दो घंटा पहले ही फुर्सत होकर घर लौटने लगा। लौटते वक्त वह बची हुई निर्माण सामग्री भी साथी लेकर आता। फिर मंदिर में देर रात तक दिये की रोशनी में काम करता। जैसे-तैसे माता की मढ़िया के मंदिर में बदलने की शुरूआत हो गई। यह बात ज्यादा दिनों तक राज नहीं रह सकी। एक दिन नवाब ने दूसरे राजमिस्त्रियों और श्रमिकों से महेश्वरी के बारे में जानकारी तो पता चला वह रोज दो घंटा पहले न सिर्फ काम छोड़कर चला जाता है, बल्कि अपने साथ बची निर्माण सामग्री भी साथ ले जाता है। यह सुनकर नवाब को अचंभा हुआ और अफसोस भी। फिर भी उसने सही बात पता लगाने का निश्चय किया। एक दिन नवाब ने लौटते वक्त महेश्वरी का पीछा किया। महेश्वरी रोज की तरह माता की मढ़िया के पास आया और कन्नी-बसूली निकालकर निर्माण में जुट गया। नवाब महेश्वरी के हुनर से तो पहले ही कायल था और आज वह उसकी अपने धर्म के प्रति आस्था और निष्ठा को देखकर और अधिक प्रभावित हो गया। पीछे से जाकर महेश्वरी की पीठ थपथपाई तो वह हक्का-बक्का रह गया। थोड़ी देर को उसे लगा जैसे उसकी कलई खुल गई। चेहरे के हाव-भाव देख नवाब को समझते देर नहीं लगी। नवाब ने कहा घबराने की कोई जरूरत नहीं है। वह कोई गलत नहीं कर रहा है, लेकिन यदि यह काम उससे बताकर करता तो बेहतर होता। नवाब ने महेश्वरी को आश्वस्त किया कि आज से मंदिर निर्माण की जिम्मेदारी उसकी अकेले की नहीं है। वह भी इसमें भागीदारी निभायेंगे। मंदिर निर्माण में धन राजकीय खजाने से लगाया जायेगा। इसके लिये महेश्वरी को अतिरिक्त पगार भी मिलने लगी। कुछ ही दिनों बाद आलीशान मंदिर बनकर तैयार हो गया। राजमिस्त्री ने अपना सारा जीवन मां की सेवा में गुजारा और जब वह नहीं रहा तो श्रृद्धालुओं ने देवी का नामकरण माता महेश्वरी के नाम पर कर दिया। मंदिर में विराजी माता महेश्वरी में उनके भक्तों की आत्मा बसती है। ऐसी मान्यता है कि मां के दरबार में भक्त जो कुछ भी मन्नत लेकर माता के इस दरबार आते हैं, वह जरूर पूरी होती है।
समय के साथ मंदिर का स्वरूप भी बदला
बदलते समय के साथ ही ऐतिहासिक महेश्वरी देवी मंदिर का स्वरूप भी बदलता चला गया। आज के समय में माता के इस मंदिर में राजमिस्त्री महेश्वरी के हाथों से हुए निर्माण के अवशेष भी नहीं रहे। इसकी जगह आलीशान मंदिर ने ले ली है। शहर के सर्राफा व्यवसायियों ने मंदिर के लिये दिल खोलकर दान दिया। मंदिर के प्रवेश द्वार पर इस धन से सात मंजिला टॉवर का निर्माण कराया गया। मंदिर का गुम्बद पांच किलोग्राम शुद्ध सोने से तैयार कराया गया।
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