कान्हा को असुरों से बचाने के लिए यशोदा ने की थी मां काली की आराधना
मथुरा। कान्हा को असुरों के मायाजाल से बचाने के लिए मां यशोदा ने चौरासी कोस परिक्रमा मार्ग पर पीरपुर गांव के बाहर जंगल में स्थित स्वयं प्राकट्य काली मां का पूजन किया था। धार्मिक ग्रंथों में कान्हा की लीलाओं के बीच यह सुनने में विचित्र लगता है कि जगत के पालनहार कान्हा काे असुर किस प्रकार से नुकसान पहुंचा सकते हैं मगर कान्हा भले ही जगत के पालनहार हैं पर वह मां यशोदा के तो ’’लाला’’ थे और अपने पुत्र का हित चिंतन करना प्रत्येक माता पिता का कर्तव्य होता है।
यह भी कहा जाता है जब कान्हा ने माटी खाई थी और यशोदा ने उसे थूकने के लिए कान्हा से कहा था तो कान्हा ने उस समय अपना विराट रूप मां यशोदा को दिखाया था। मां यशेादा या अन्य ब्रजवासी उन्हें भगवान न समझें इसलिए कान्हा ने ब्रजवासियों के साथ जो लीलाएं की उनमें स्वयं को एक इंसान के रूप में ही प्रस्तुत किया था।
इसीलिए कान्हा ने मां यशोदा को विराट रूप तो दिखाया लेकिन यह सब उन्हें विस्मरण करा दिया था। एक अन्य प्रसंग का जिक्र करते हुए पीरपुर गांव के बाहर जंगल में स्थित काली मां मन्दिर के महंत तपस्वी संत नागरीदास बाबा ने बताया कि मां यशोदा का पुत्र प्रेम उस समय भी उमड़ पड़ा था जब कान्हा ने अपनी सबसे छोटी उंगली के नाखून पर गोवर्धन को धारण कर इन्द्र के प्रकोप से ब्रजवासियों की रक्षा की थी तथा इन्द्र का संवर्तक मेघों को ब्रज को डुबोने का आदेश बेकार गया था।
मां यशोदा ने ब्रजवासियों से गोवर्धन पर्वत को उठाने में पूरी शक्ति लगाने का आह्वान करते हुए कहा था कि ’’लाला की नरम कलइयां, कहीं मुरक न जाये बहियां , गिरवर मे ंबोझ अपार........’’ ।उन्होंने कहा कि अपने लाला की सुरक्षा के लिए ही मां यशोदा और नन्दबाबा ने यहां पर काली मां का पूजन कर प्रार्थना की थी।
द्वापर का गवाह ब्रज चौरासी कोस परिक्रमा पर स्थित यह मन्दिर अति सिद्ध मन्दिर है तथा जो भी यहां पर पूरे भक्ति भाव से आता है , पूजन अर्चन करता है ’’माई’’ कभी उसे निराश नही करतीं।यही कारण है कि नवरात्रि पर यहां पर एक प्रकार से मेला सा लग जाता है तथा ब्रज चैरासी कोस यात्रा पर निकले कृष्ण भक्त इस मन्दिर में पूजन अर्चन करने के लिए अवश्य आते हैं।
एक प्रश्न के उत्तर में परम तपस्वी, त्यागी संत ने बताया कि ’’माई’’ का धूना (अग्नि) कब से प्रज्वलित हो रहा है यह बताना मुश्किल है क्योंकि उनके गुरू और उनके गुरू के गुरू के गुरू का कहना था कि उन्होंने भी धूने को प्रज्वलित होते ही देखा है।उन्होंने बताया कि इस मन्दिर को विशाल रूप देने की कई बार पेशकश हुई पर मां ने उसे अस्वीकार कर दिया ।
यहीं कारण है कि आसपास के क्षेत्र में कुछ परिवर्तन हुआ है पर मूल मन्दिर जस का तस है। संत ने बताया कि यह मां की आराधना का ही फल है कि कोरोना काल में पास के पीरपुर गांव में कोई भी व्यक्ति कोरोना से ग्रसित नही हुआ।
उनका कहना था कि नवरात्रि के प्रारंभ से ही यहां देवी पूजन चल रहा है। यहां पर अष्टमी को कन्या लांगूरा को बड़ी श्रद्धा के साथ ’’माई’’ का प्रसाद परोसा जाता है तथा नवमी के दिन अखण्ड सामूहिक हवन होता है।उन्होंने अंत में कहा कि ’’माई’’ के चमत्कार वर्ष पर्यन्त देखने को मिलते रहते है तथा भाव से सेवा करनेवाला कभी भी यहां से खाली हाथ नही जाता है।
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