मैं उर्दू में गजल कहता हूं हिंदी मुस्कुराती है... ''मुहाजिरनामा'' नज्म से दुनियाभर में मिली मुनव्वर राना को शोहरत

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Published By Deepak Mishra
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लखनऊ। अपनी शायरी से दुनिया भर में धाक जमाने वाले बेबाक शायर मुनव्वर राना का सोमवार रात लगभग 11: 30 बजे राजधानी लखनऊ स्थित पीजीआई में लम्बी बीमारी के बाद निधन हो गया। खबर फैलते ही हिंदी उर्दू अदब के चाहने वालों में शोक की लहर छा गई। देर रात तक लोग इस खबर की सच्चाई जानने में लगे रहे क्योंकि किसी के लिये ये मानना मुश्किल हो रहा था कि मुनव्वर अब नहीं रहे। 

रायबरेली के रहने वाले पिता सैय्यद अनवर अली और माता आएशा खातून के घर 26 नवंबर 1952 को सैय्यद मुनव्वर अली का जन्म हुआ जो आगे चल कर मुनव्वर राना के रूप में दुनिया भर में जाने गये। उनको ये नाम उस ज़माने के मशहूर शायर वाली आसी ने दिया, इससे पहले वो अपने तखल्लुस “आतिश“ के नाम से शाइरी किया करते थे। छह भाईयों इस्माईल, राफे, जमील, शकील, याहिया और एक बहन शाहीन के बीच सबसे बड़े मुनव्वर राना की प्रारंभिक पढ़ाई लिखाई रायबरेली में ही हुई लेकिन फिर 1968 में मुनव्वर अपने ट्रांसपोर्टर पिता का हाथ बंटाने कोलकाता पहुंच गये और वहीं से बी. कॉम किया। 

कोलकाता में रहते हुए उनका उठना बैठना कुछ नक्सली गुटों के साथ हो गया था जिसकी भनक लगते ही उनके पिता ने उन्हें घर से निकाल दिया था। पुश्तैनी व्यवसाय में लगे रहे और ट्रक के पहियों पर चलती ज़िदगी आख़िरकार लखनऊ आ कर ठहर गई। इसी शहर में अपनी बेगम रैना राणा और छह बच्चों तबरेज, सुमैया, उरूषा, फौज़िया, अर्शिया और हिबा के साथ पुश्तैनी व्यवसाय और सहित्य सेवा में लगे रहे।
 
मुनव्वर राणा के साहित्य और शेरो शाइरी में आम इंसान के दर्द बख़ूबी झलकते थे। उर्दू के साथ साथ हिंदी में भी लिखते रहे। हिंदी और उर्दू को एक दूसरे की पूरक मानते हुए वो लिखते हैं... “लिपट जाता हूँ माँ से और मौसी मुस्कुराती है, मैं उर्दू में गजल कहता हूं हिंदी मुस्कुराती है।“ 

मुनव्वर राणा को उनकी बेबाकी और तल्ख़अंदाजी के लिये भी जाना जाता है वो अपनी शाइरी में बिना किसी लाग लपेट के तल्ख़ अंदाज़ में अपनी बात बयां कर देते थे जिस वजह से अक्सर विवादों में भी रहे। बचपन में बंटवारे का दौर याद कर और परिवार को हिदुस्तान पाकिस्तान में बिखराव को याद करते हुए उन्होंने नज़्म लिखी “मुहाजिरनामा“ जिसे दुनिया भर में शोहरत मिली। मुहाजिरनामा में वो बंटवारे के दर्द को कुछ यूं लिखते हैं कि:

नई दुनिया बसा लेने की इक कमज़ोर चाहत में पुराने घर की दहलीज़ों को सूना छोड़ आए हैं।
अक़ीदत से कलाई पर जो इक बच्ची ने बाँधी थी वो राखी छोड़ आए हैं वो रिश्ता छोड़ आए हैं।
सभी त्योहार मिलजुल कर मनाते थे वहाँ जब थे दिवाली छोड़ आए हैं दशहरा छोड़ आए हैं।
यहाँ आते हुए हर कीमती सामान ले आए मगर इकबाल का लिखा तराना छोड़ आए हैं।

उनकी नज़्म माँ में वो बेहद करीने से माँ के किरदार को रेखांकित करते हुए कहते हैं “मैंने रोते हुए पोंछे थे किस दिन आंसू, मुद्दतों मां ने नहीं धोया दुपट्टा अपना। लगभग हर मौज़ू पर शाइरी करने वाले मुनव्वर बीमारी पर भी कहते हैं “मुहब्बत के लिये थाड़ी सी रूसवाई ज़रूरी है, शकर के डर से बुज़दिल लोग मीठा छोड़ देते हैं। 

मुनव्वर साहब अपनी मेहमाननवाज़ी के लिये भी जाने जाते रहे, जो भी एहतराम के साथ दरवाज़े पहुंचा कभी निराश नहीं लौटा इस मौज़ू पर भी वो कहते हैं “फ़कीरों की ये कुटिया है फरावानी नहीं होगी, मगर जब तक रहोगे हां परेशानी नहीं होगी“ काफी वक्त तक मुनव्वर साहब तमाम गंभीर बीमारियों से जूझते रहे, एक वक्त था जब किसी अस्पताल में भर्ती हुए तो दर्द अश्आर के रूप में यूं लिखाः

मौला ये तमन्ना है कि जब जान से जाऊँ
जिस शान से आया हूं उसी शान से जाऊँ
जाने अब कितना सफ़र बाकी बचा है उम्र का
ज़िदगी उबले हुए खाने तलक तो आ गई।

उतार चढ़ाव के बीच मुनव्वर साहब का विवादों ने भी पीछा नहीं छोड़ा और वजह रही बोलने में उनकी बेबाकी। अवार्ड वापसी हो, दादरी विवाद में उनकी टिप्पणी हो चार्ली हैब्दो प्रकरण रहा हो या तालिबान के संदर्भ में उनका बयान, इन सभी पर उनकी तीखी आलोचना भी हुई लेकिन शायरी के मंच पर हमेशा उनकी पताका फहराती रही। शायरी के चाहने वालों की भीड़ कभी उनके बयानों के आड़े नहीं आई।

विभिन्न प्रकाशनों से आपकी बहुत सी किताबें छपीं जिनमें पीपल छांव, मां, फिर कबीर, बग़ैर नक्शे का मकान, नीम के फूल, घर अकेला हो गया, बदन सराय, ग़ज़ल गांव, चेहरे याद रहते हैं, सफेद जंगली कबूतर, मुहाजिरनामा, नए मौसम के फूल, कहो ज़िल्ले इलाही से आदि बेहद लोकप्रिय हुईं। उन्हें 2014 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

इसके अलावा ग़ालिब अवार्ड, डा. ज़किर हुसैन पुरस्कार, कविता का कबीर सम्मान, अमीर खुसरो पुरस्कार, भारती परिषद् पुरस्कार, उस्ताद बिस्मिल्लाह खान अवार्ड, सरस्वती समाज पुरस्कार, मीर पुरस्कार जैसे दर्जनों सम्मान से नवाज़ा गया। उन्हें उ0प्र0 उर्दू अकादमी का अध्यक्ष भी मनोनीत किया गया लेकिन स्वच्छंद जीवनशौली जीने वाले मुनव्वर साहब को सरकारी बंदिशें रास नहीं आईं और बहुत जल्दी ही स्तीफा सौंप कर लिखने सुनाने की दुनिया में मश्गूल हो गये।
क्या पता था कि इक रोज़ मुनव्वर की लिखी ये लाईन यूं ही लिखनी होगी किः

बहुत दिन रह लिये दुनिया के सर्कस में तुम ऐ राना
चलो अब उठ लिया जाये तमाशा खत्म होता है।

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