‘ड्रैगन फ्रूट’ के उत्पादन से निकले बरेली के किसानों के लिए नये रास्ते

Amrit Vichar Network
Published By Pradeep Kumar
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गहरा गुलाबी-लाल रंग, खाने में मक्खन जैसा मुलायम व मीठा। गजब का स्वाद। हम बात कर रहे हैं वियतनाम मूल के विदेशी ‘ड्रैगन फ्रूट’ की। अब यह फल बरेली की धरती पर खूब उग रहा है। यहां के बहगुलपुर गांव के प्रगतिशील किसान यशपाल ने अपने 10 एकड़ खेत में इस ‘सुपरफूड’ का उत्पादन कर बाकी किसानों के लिए भी नये रास्ते खोल दिये हैं।

जिले के किसान अन्य पारंपरिक खेती के साथ इस फल की खेती कर सकते हैं, क्योंकि इस खेती बहुत आसान है। उद्यान विभाग इसकी खेती के लिए किसानों को प्रशिक्षण के साथ निशुल्क पौध भी उपलब्ध करा रहा है। लगभग डेढ़ साल में इसकी फसल तैयार हो जाती है, जबकि तीन साल के बाद भारी मात्रा में फल आते हैं। अगले तीस सालों तक किसान इससे फसल लगातार ले सकते हैं। ऐसे में यह किसानों की आय बढ़ाने का अच्छा सौदा साबित हो सकता है। गुजरात व मुंबई से जाकर इसकी खेती से प्रेरित हुए यशपाल व उनकी टीम के साथी प्रवीण कुमार गुप्ता अपने अनुभव साझा करते हुए कहते हैं कि इसकी खेती पर एक एकड़ चार-पांच लाख रुपये खर्च होते हैं। एक एकड़ में प्रति साल 10-15 लाख का फायदा होता है। इसकी फसल जुलाई से नवंबर तक चलती है। इसकी खेती में जैविक व प्राकृतिक उर्वरक इस्तेमाल होता है। किसान वर्मी कम्पोस्ट खुद बनाकर खेतों में इसका उपयोग कर सकते हैं। यह खाद साल में तीन बार देनी होती है। हर पन्द्रह दिन में सिंचाई ड्रिप तकनीक प्रणाली से की जाती है। सिंचाई के लिए बहुत कम पानी की आवश्यकता होती है। इसके उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए 90 प्रतिशत सब्सिडी दे रही है।

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बाजार में है बहुत संभावनाएं
यशपाल का कहना है कि बरेली समेत अन्य जिलों में इस फल की बहुत मांग है। वजह यह है कि यह स्वादिष्ट होने के साथ ही कीवी फल से 10 गुना पौष्टिक होता है। स्वादिष्ट होने के कारण इसकी मांग निरंतर बढ़ती जा रही है।

जलभराव वाली जमीन पर नहीं पैदा होता यह फल
प्रगतिशील किसान का कहना है कि यह फल जलभराव वाली जगह पर नहीं पैदा होता, क्योंकि इसकी जड़ें गहरी नहीं होती हैं। यह बंजर जमीन पर भी उग सकता है। जमीन तो केवल नीचे सपोर्ट के लिए होती है, जबकि यह फल अलग से जैविक खादयुक्त मिट्टी पर उग जाता है। 

अच्छा परिणाम दे रही हैं विदेशी फसलें
बरेली में पारंपरिक फसलों से हटकर विदेशी व उन्नत खेती की अपार संभावनाएं हैं। भले ही यहां की जलवायु इन फसलों के अनुकूल नहीं है, फिर भी यहां की धरती पर जिस तरह सेे विदेशी फसलें अच्छा परिणाम दे रही हैं। इससे खेती में लगे किसानों का उत्साह बढ़ गया है। इसी तरह, दूसरे राज्यों की देसी गिर गाय भी अनुकूल जलवायु न होने के बाद भी बरेली की जमीन पर बेहतर नतीजे दे रही हैं।

बरेली के और किसान भी इससे प्रेरणा लेकर इस क्षेत्र में सफलता की ऊंचाई छू सकते हैं। इन अच्छे नतीजों से कृषि व उद्यान के विशेषज्ञ चकित हैं। कुछ का कहना है कि सुविधाओं के बेहतर प्रबंधन के कारण अच्छे नतीजे आ रहे हैं, तो कुछ इस पर अनुसंधान किये जाने पर जोर दे रहे हैं।भारतीय पशु चिकित्सा अनुसंधान संस्थान के उद्यान विभाग के विषय विशेषज्ञ डॉ रंजीत सिंह का कहना है कि विज्ञान के अनुसार तो विदेशी औद्यानिक फसलें बरेली की जलवायु के अनुकूल नहीं हैं। यहां जाड़े में बहुत ठंड तो गर्मी में बहुत गर्म पड़ती है। यहां सामान्य तौर पर दिन में अधिकतम तापमान 27 डिग्री सेल्सियस व रात में 12 डिग्री सेल्सियस रहता है। विदेशी नस्ल के उत्पादन पर उनका कहना है कि कुछ किस्में ही यहां उग पाई हैं। उनका कहना है कि कृषि वैज्ञानिक कई ‘राउंड’ में जलवायु व फसल उत्पादन का अध्ययन करते हैं। औसतन 10 साल का डाटा लिया जाता है। इसमें सफलता मिलने पर ही उसे सफल कहा जा सकता है। उन्होंने कहा कि विदेशी तकनीक के अंगूर, ड्रैगन फ्रूट आदि पैदा हो रहे हैं।

पहले की खेती और आज की खेती में फर्क समझेःं डा. अंजनी
कृषि क्षेत्र में बदलाव की कहानी अब आम हो गई है। पहले खेती भले ही कम की जाती थी, लेकिन फसल की गुणवत्ता और बीजों के चुनाव में पहले की खेती और आज की खेती में बहुत फर्क आ चुका है। आयुर्वेदाचार्य और कृषि विशेषज्ञ डा. अंजनी सिंह उदाहरण के तौर पर बताते हैं कि आज की लौकी खाने के बाद कई बार पेट दर्द की शिकायत रहती है, जबकि पहले की लौकी खाने पर ऐसी दिक्कत नहीं होती थी। क्योंकि आज की लौकी का आकार बड़ा करने के लिए लोग ‘इंजेक्शन’ का इस्तेमाल करने लगे हैं। डा. अंजनी कहते हैं पहले खेती में गोबर और अन्य प्राकृतिक खाद का इस्तेमाल होता था, जिससे फसल की गुणवत्ता अच्छी होती थी और मिट्टी की उर्वरता भी बढ़ती थी। लेकिन आज खेती में रसायनों का इस्तेमाल बढ़ गया है, जिससे फसल की गुणवत्ता घट रही है और मिट्टी की उर्वरता भी कम हो रही है। इससे लोगों के स्वास्थ्य पर भी बुरा प्रभाव पड़ रहा है।

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