हाईकोर्ट : अधिवक्ता की अनुपस्थिति में खारिज याचिका को किया बहाल
प्रयागराज, अमृत विचार : इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण आदेश में यह स्पष्ट किया है कि यदि कोई आपराधिक याचिका केवल ग़ैर-हाज़िरी के कारण खारिज होती है और मामले के गुण-दोष पर कोई विचार नहीं किया गया है, तो ऐसा आदेश ‘जजमेंट’ नहीं माना जाएगा और उस पर दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 362 का प्रतिबंध लागू नहीं होगा। उक्त आदेश न्यायमूर्ति तेज प्रताप तिवारी की एकलपीठ ने परवेज़ खान द्वारा सीआरपीसी की धारा 482 के तहत दाखिल याचिका को उसके मूल रूप में बहाल करते हुए दिया।
बता दें कि उपरोक्त याचिका 30 मई 2024 को इस आधार पर खारिज कर दी गई थी कि उनके अधिवक्ता तकनीकी समस्या के कारण मुकदमों की सूची नहीं देख सके और समय पर न्यायालय में उपस्थित नहीं हो पाए। कोर्ट ने माना कि यह परिस्थिति अनिच्छापूर्ण थी और सुनवाई का वास्तविक अवसर याची को नहीं मिला। दूसरी ओर विपक्षी ने आपत्ति उठाई कि सीआरपीसी में ‘पुनर्स्थापन’ (रिस्टोरेशन) का प्रावधान नहीं है और धारा 362 किसी भी अंतिम आदेश में परिवर्तन या समीक्षा पर प्रतिबंध लगाती है।
इस पर कोर्ट ने कहा कि केवल ग़ैर-हाज़िरी के कारण पारित आदेश में न तो साक्ष्यों की समीक्षा होती है, न किसी पक्ष के तर्कों पर विचार, इसलिए ऐसी स्थिति में पारित निर्णय अंतिम निर्णय या ‘जजमेंट’ नहीं माना जा सकता। ऐसे मामलों में धारा 362 लागू नहीं होगी और हाईकोर्ट अपने अंतर्निहित अधिकारों के तहत याचिका बहाल कर सकता है। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि न्यायालय की भूमिका तकनीकी औपचारिकताओं को बढ़ावा देना नहीं, बल्कि न्याय-सुनिश्चित करना है। अंत में कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला देते हुए कहा कि पक्षकार को उसके अधिवक्ता की चूक का दंड देना न्यायसंगत नहीं है।
प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के अनुसार प्रत्येक पक्ष को प्रभावी सुनवाई का अवसर मिलना आवश्यक है। कोर्ट ने मामले के तथ्यों और रिकॉर्ड पर विचार करते हुए पाया कि याची की अनुपस्थिति जानबूझकर नहीं थी और मामले में कोई दुर्भावना प्रदर्शित नहीं होती, इसलिए गत 30 मई 2024 के आक्षेपित आदेश को रद्द करते हुए याचिका को पुनः मूल संख्या पर बहाल कर दिया गया।
