हाईकोर्ट : अनुशासनात्मक ‘बरी’ से आपराधिक मामला खत्म नहीं होता
प्रयागराज, अमृत विचार : इलाहाबाद हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया है कि बार काउंसिल की अनुशासनात्मक कार्यवाही में अनुकूल आदेश या दोषमुक्ति किसी अधिवक्ता के खिलाफ लंबित वैध आपराधिक मुकदमे को स्वतः रद्द करने का आधार नहीं बन सकती। उक्त आदेश न्यायमूर्ति जय प्रकाश तिवारी की एकलपीठ ने योगेश कुमार भेंटवाल द्वारा सीआरपीसी की धारा 482 के तहत दाखिल याचिका पर सुनवाई करते हुए पारित किया।
कोर्ट ने आगे कहा कि दोनों कार्यवाहियां, आपराधिक और अनुशासनात्मक, स्वतंत्र प्रकृति की हैं, जिनके उद्देश्य, प्रक्रिया और प्रमाण-मानक भिन्न होते हैं और इसलिए वे समानांतर चल सकती हैं। याचिका में याची ने गाजियाबाद की अदालत द्वारा आईपीसी की धारा 420 के तहत जारी समन को चुनौती दी थी। मामला महावीर सिंह द्वारा 2012 में अधिवक्ता अधिनियम की धारा 35 के तहत दायर उस शिकायत से जुड़ा है, जिसमें आरोप था कि याची ने अनुकूल आदेश दिलाने का भरोसा देकर 6.36 लाख रुपये लिए। बार काउंसिल की अनुशासन समिति ने 2014 में एकपक्षीय आदेश से उन्हें पांच वर्ष के लिए निलंबित कर दिया था, जिसे बाद में रिकॉल याचिका में रद्द कर दिया गया। इसके उपरांत शिकायतकर्ता ने ठगी का परिवाद दाखिल किया, जिस पर 2017 में समन जारी हुआ।
याची ने तर्क दिया कि अनुशासन समिति द्वारा शिकायत खारिज किए जाने के बाद एक ही तथ्यों पर दर्ज आपराधिक मामला दुर्भावनापूर्ण है और न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग है। उन्होंने यह भी कहा कि आरोप दीवानी प्रकृति के हैं। कोर्ट ने इन दलीलों को अस्वीकार करते हुए कहा कि अनुशासनात्मक ‘बरी’ अपने आप में आपराधिक कार्यवाही समाप्त करने का मान्य आधार नहीं है। अधिवक्ता अधिनियम के तहत अनुशासनात्मक जांच “अर्ध-आपराधिक” होती है, जिसका उद्देश्य वकालत पेशे की नैतिक मर्यादा को सुरक्षित रखना है, जबकि आपराधिक मुकदमे में अपराध के कानूनी तत्वों की जांच की जाती है। वर्तमान मामले में समन आदेश अदालत द्वारा शिकायतकर्ता और गवाहों के बयानों के आधार पर विधिसम्मत रूप से पारित हुआ था। अंत में कोर्ट ने याचिका खारिज कर दी।
