बुलंद आवाज से बॉलीवुड पर दशकों तक किया राज, ऐसे थे पृथ्वीराज

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हिंदी सिनेमा में पृथ्वीराज कपूर एक नायाब हस्ती हैं। उनका नाम लिए बिना सिनेमा का इतिहास पूरा नहीं हो सकता। आज उनकी पुण्यतिथि है। 1928 के आस-पास का एक दिन मुंबई के कोलाबा स्टेशन पर पेशावर से आई फ्रंटियर मेल रूकती है उसमें से एक खूबसूरत, ऊंचे कद-बुत का पठान उतरता है। उसकी भूरी आंखों …

हिंदी सिनेमा में पृथ्वीराज कपूर एक नायाब हस्ती हैं। उनका नाम लिए बिना सिनेमा का इतिहास पूरा नहीं हो सकता। आज उनकी पुण्यतिथि है। 1928 के आस-पास का एक दिन मुंबई के कोलाबा स्टेशन पर पेशावर से आई फ्रंटियर मेल रूकती है उसमें से एक खूबसूरत, ऊंचे कद-बुत का पठान उतरता है। उसकी भूरी आंखों में एक हसीन ख्वाब है, उमंग है, विश्वास है। वो सीधे इंपीरियल स्टूडियो पहुंचता है। वहां उसकी मुलाकात डायरेक्टर अर्दिशिर ईरानी से होती है। वो उसे बाहर टंगा बोर्ड दिखाते हैं, जिस पर लिखा है – नो वैकेंसी। लेकिन वो नौजवान हठ करता है, जैसा भी हो, काम चाहिए। वो नौजवान अपनी खूबियां बताता है। वो ग्रेजुएट है। पंजाबी, उर्दू, पश्तो और अंग्रेजी पर उसकी बहुत अच्छी पकड़ है। उसने कई नाटकों में काम भी किया है।

उस नौजवान के आत्मविश्वास और आकर्षण पर अर्दिशिर मजबूर हो जाते हैं। मगर इससे पहले वो उसका इम्तहान लेते हैं, ठीक है, मगर अनपेड एक्स्ट्रा का काम है। नौजवान पूछता है, मुझे करना क्या होगा? अर्दिशिर गुस्से में कहते हैं, भीड़ का हिस्सा, जहां तुम्हारी कोई अहमियत नहीं होगी। मगर इसके बावजूद वो नौजवान खुशी-खुशी तैयार हो जाता है। उस नौजवान के चेहरे पर आत्मविश्वास है। अर्दिशिर बहुत प्रभावित होते हैं। नौजवान के कंधे पर हाथ रखते हैं, तुम बहुत दूर तक जाओगे। उस नौजवान का नाम है, पृथ्वीराज कपूर।

पूरे दस दिन गुजर चुके थे, पृथ्वी को भीड़ में खड़े हुए। ‘सिनेमा गर्ल’ फिल्म की शूटिंग चल रही थी। उस दिन फिल्म का हीरो नहीं आया था। डायरेक्टर बहुत क्रोधित हुआ। इस हीरो को आज बदल ही डालो। हीरोइन से कहा गया कि सामने एक्स्ट्रा आर्टिस्ट्स की भीड़ लगी है, किसी को अपना हीरो चुन लो। हीरोइन ने पृथ्वीराज की ओर ईशारा कर दिया वो खूबसूरत और चौड़े कन्धों वाला नौजवान और इस तरह पृथ्वी नायक बन गए – सौ रूपये महीने के वेतन पर 1931 में अर्दिशिर ईरानी ने भारत की पहली बोलती फिल्म ‘आलमआरा’ बनायी। इसमें पृथ्वीराज की भी सेकंड लीड थी। उन दिनों ‘फिल्म इंडिया’ के प्रकाशक-संपादक बाबूराव पटेल जाने क्यों पृथ्वीराज से खुन्नस रखते थे।

उन्होंने एक आर्टिकल में लिखा – पठान जैसे चेहरे वाले पृथ्वीराज, तुम बांबे में चल नहीं पाओगे। बेहतर है फ्रंटीयर मेल से पेशावर लौट जाओ। पृथ्वीराज ने जवाब दिया था – मैं पेशावर नहीं लौटूंगा बल्कि तैर कर सात समंदर पार हॉलीवुड चला जाऊंगा। हिस्ट्री गवाह है, उसके बाद बाबूराव पटेल ने उनसे पंगा नहीं लिया। इस बीच पृथ्वीराज की निजी जिंदगी में एक के बाद एक दो बहुत बड़ी त्रासदियां हुईं। उनके एक बेटे को डबल निमोनिया ने निगल लिया और दो साल के अन्य बेटे ने भूल से चूहे मारने वाली दवा खा ली। उस समय उनकी पत्नी के गर्भ में चौथा बच्चा था।

1941 में रिलीज़ सोहराब मोदी की ‘सिकंदर’ पृथ्वीराज के कैरियर में मील का पत्थर बनी। अपने रंग-रूप, डील-डौल और बुलंद आवाज़ के कारण वो आक्रांता सिकंदर की भूमिका में खूब जंचे, सोहराब मोदी इसमें राजा पुरु की भूमिका में थे। इसी में वो कालजयी संवाद थे। सिकंदर ने कैदी पुरु से पूछा था – तेरे साथ क्या सलूक किया जाए? पुरु ने गर्व से जवाब दिया था – वही जो एक राजा, दूसरे राजा के साथ करता है और सिकंदर जीता हुआ राजपाट पुरु को लौटा कर अपने देश वापसी का फैसला करता है. बरसों बाद 1965 में ‘पुकार’ एक बार फिर बनी, लेकिन ‘सिकंदर’ के नाम से इस बार सिकंदर बने थे, दारासिंह और पुरु पृथ्वीराज थे।

‘सिकंदर’ के बाद पृथ्वीराज का स्वर्णिम काल शुरू हो गया। लेकिन बिना नाटक के उन्हें संतुष्टि नहीं मिल रही थी। अंततः 1946 में उन्होंने पृथ्वी थिएटर की नींव रख कर अपने लंबित सपने को पूरा कर ही डाला। पूरे भारत में उन्होंने करीब छह सौ शो किये जिसमें अधिकतर में वो स्वयं हीरो रहे।

‘मुगले-आज़म’ पृथ्वीराज के जीवन की सबसे बड़ी और अहम घटना है। इसमें वो बादशाह अकबर थे। उनकी दमदार परफॉरमेंस पर एक क्रिटिक की टिप्पणी थी, शायद बादशाह अकबर ऐसा ही रहा होगा। आज भी अकबर का नाम जब जुबान पर आता है तो पृथ्वीराज का चेहरा ही सामने आता है। अकबर का मेकअप करने और उसकी काया के भीतर घुसने में उनको चार घंटे लगते थे। जब वो मेकअप रूम के जा रहे होते थे तो कहते थे, पृथ्वी जा रहा है। और जब बाहर आते थे तो बा-आवाज़े बुलंद कहते थे, अकबर आ रहा है।

पृथ्वीराज ने जहांआरा, लुटेरा, रुस्तम-सोहराब, तीन बहुरानियां, नानक नाम जहाज है, कल आज और कल, हरिश्चंद्र तारामती, गजल, आसमान महल आदि करीब सौ फिल्मों में काम किया। पंडित जवाहरलाल नेहरू उनसे बहुत प्रभावित थे। उन्हें राज्यसभा के लिए नामांकित कराया। 1969 में पदम् भूषण से सम्मानित हुए वो राजकपूर, शम्मी कपूर और शशि कपूर के पापा जी थे। फिल्म इंडस्ट्री भी उन्हें ‘पापा जी’ के नाम से जानती थी। वो आस-पास वालों को गुरूमंत्र दिया करते थे, जितनी भी ज़िंदगी है, उसे भरपूर जीयो, मगर वो खुद 29 मई 1972 को मात्र 66 साल की उम्र में कैंसर से वो बाज़ी हार गए। सोलह दिनों बाद उनकी पत्नी भी चल बसीं, मरणोपरांत उन्हें सिनेमा के सबसे बड़े अवार्ड दादा साहेब फाल्के से नवाज़ा गया। 2013 में ‘भारत में सिनेमा को सौ साल’ के अवसर पर उनके योगदान को याद करते हुए डाक टिकट ज़ारी हुआ।

आज की पीढ़ी शायद नहीं जानती कि पृथ्वीराज के पिता दीवान बशेश्वरनाथ कपूर यों तो सिनेमा के सख्त खिलाफ थे, लेकिन वो पोते राजकपूर की ‘आवारा’ में जज की भूमिका में दिखे। वो फिल्म की शुरुआत में देखे गए और फिर फिल्म के अंत में, इसमें उनके बेटे पृथ्वीराज भी जज रघुनाथ थे। यानी दादा, पिता और पोता तीन पीढ़ियां एक ही सीन में इस समय रणवीर कपूर के रूप में उनकी पांचवीं पीढ़ी सिनेमा के मैदान में है।

 -वीर विनोद छाबड़ा

 

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