‘खुला बाज’ की थाप पर नजाकत भरे हाव-भाव, तबला वादन और कथक नृत्य की समृद्ध विरासत का संगीत सुनाता है लखनऊ घराना

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Published By Muskan Dixit
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मुगलों ने कथक को मंदिरों से दरबारों और कलाकारों में पुरुषों से महिलाओं की ओर मोड़ दिया था

लखनऊ, अमृत विचारः तबला वादन और कथक नृत्य की प्रमुख शैली लखनऊ घराना जिसे ‘पूरब घराना’ भी कहा जाता है, अपनी तमाम विशिष्टताओं जैसे कि तबला वादन में ‘खुला बाज’ या ‘हथेली का बाज’ और कथक में ‘नजाकत’ तथा अदा की नफासत पर जोर देने के लिए जाना जाता है। यह घराना भारतीय शास्त्रीय कलाओं में समृद्ध सांस्कृतिक विरासत की सैर भी कराता है। लखनऊ घराने के प्रमुख तबला कलाकारों में उस्ताद आफाक हुसैन खान, पंडित स्वपन चौधरी, उस्ताद जुल्फिकार हुसैन, खलीफा वाजिद हुसैन खान, खलीफा आबिद हुसैन खान, मुन्ने खान और बेगम अख्तर के नाम गिने जाते हैं, तो कथक के क्षेत्र में पंडित बिरजू महाराज, बिंदादीन महाराज, शंभू महाराज, और लच्छू महाराज प्रमुख कलाकार हैं। 

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लखनऊ घराना का इतिहास दिल्ली घराने से निकलने का है, लेकिन कथक नृत्य का विकास लखनऊ के नवाबों के साथ हुआ। दरअसल, मुगलों ने कथक को मंदिरों से दरबारों में और कलाकारों में पुरुषों से महिलाओं की ओर मोड़ दिया था। कथक की परंपराएं आमतौर पर एक से दूसरी पीढ़ी में पहुंचती रहीं। इसके चलते ही लखनऊ के अलावा कथक के दो और घराने जयपुर व बनारस विकसित हुए। लखनऊ घराने का कथक नर्तक अपनी कलाइयों और अंगुलियों को एक हाथ की मुद्रा से दूसरी कोमल मुद्रा में बदलने की अनूठी कला के बीच अपने हाव-भाव से देखने वालों का दिल जीत लेता है। पंडित बिरजू महाराज लखनऊ घराने के प्रसिद्ध कथक नर्तक थे। उनका पूरा नाम बृज मोहन नाथ मिश्र था। लखनवी कथक के पर्याय बिरजू महाराज लखनऊ घराने की प्रमुख शाखा कालका-बिंदादीन घराने से ताल्लुक रखते थे। है। उनके पिता अच्छन महाराज और चाचा शंभू महाराज भी प्रसिद्ध कथक नर्तक थे। 

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लखनऊ घराने का तबला वादन पूरी हथेली के इस्तेमाल, अंगुलियों के साथ हथेली का उपयोग और तेज, नाजुक भराव के लिए जाना जाता है। इस घराने की स्थापना उस्ताद बक्शू खान और मोदू खान ने की थी, जो दिल्ली के उस्ताद सिद्धार खान के भतीजे थे और लखनऊ के शासक नवाब आसफउद्दौला के बुलावे पर दिल्ली से लखनऊ आकर बस गए थे। उन दिनों लखनऊ संगीत और नृत्य के लिए प्रसिद्ध था। यह देखकर उन्होंने नृत्य करते समय नर्तकियों द्वारा पहने जाने वाले घुंघरू या घंटियों की ध्वनि से मेल खाने के लिए तबले और पखावज के मिश्रण का उपयोग शुरू कर दिया। इसी शैली में एक ऊंची ध्वनि जोड़ी को ‘खुल्ला बाज’ नाम से जाना जाने लगा। इस घराने को थपिया बाज (थपिया मतलब हथेली) भी कहा जाता है। इसमें अंगुलियों के साथ हथेली का भी उपयोग होता है।

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