आरोपियों को बचाने की मंशा से दाखिल अभियोजन वापसी आवेदन दोषपूर्ण : हाइकोर्ट
प्रयागराज। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने क़तर वीज़ा धोखाधड़ी और जातिसूचक अपमान से जुड़े मामले में अभियोजन वापसी की अनुमति देने से इनकार करते हुए कहा कि राज्य सरकार का सिर्फ़ केस वापस लेने का इरादा दिखाना कोर्ट को बाध्य नहीं करता और न ही इससे पब्लिक प्रॉसिक्यूटर और कोर्ट, दोनों की स्वतंत्र जांच की कानूनी ज़रूरत कम होती है, विशेषकर एससी/ एसटी मामलों में।
उक्त आदेश न्यायमूर्ति शेखर कुमार यादव की एकलपीठ ने छोटे लाल कुशवाहा और तीन अन्य द्वारा दाखिल आपराधिक अपील को खारिज करते हुए पारित किया। मामले के अनुसार अपीलकर्ता के खिलाफ आरोप है कि उसने पीड़िता से उसके पति को क़तर भेजने के नाम पर 80 हजार रुपए लिए और 1 जनवरी 2019 को ऐसा वीज़ा दिया जो उपयोग में नहीं लाया जा सका।
पैसे की वापसी मांगने पर 8 मई 2020 को पीड़िता को कथित रूप से जातिसूचक गालियां दी गईं और धमकाया गया। पुलिस ने जांच के बाद आरोपियों के विरुद्ध आईपीसी, डिज़ास्टर मैनेजमेंट एक्ट और एससी/एसटी एक्ट की धाराओं के तहत पुलिस स्टेशन स्योरही, कुशीनगर में मुकदमा दर्ज किया गया। इसके बाद 5 जनवरी 2024 के राज्य सरकार के पत्र के आधार पर लोक अभियोजक ने सीआरपीसी की धारा 321 के तहत मुकदमा वापस लेने की अर्जी दी।
पीड़िता ने इसका विरोध करते हुए कहा कि मामला गंभीर है और यह सीधे एससी/एसटी समुदाय के अधिकारों से जुड़ा है। विशेष न्यायाधीश, एससी/एसटी एक्ट, कुशीनगर ने अर्जी यह कहते हुए ख़ारिज कर दी कि यह न तो लोकहित में है और न ही अभियोजक का निर्णय स्वतंत्र रूप से लिया गया प्रतीत होता है।
कोर्ट ने विशेष न्यायाधीश के आदेश को सही ठहराते हुए कहा कि सरकार केवल इच्छा जताकर अदालत को मुकदमा वापस लेने के लिए बाध्य नहीं कर सकती। लोक अभियोजक को स्वतंत्र मन से निर्णय करना आवश्यक है। मौजूदा मामले में दर्ज एफआईआर, सीआरपीसी की धारा 161 के तहत बयान और उपलब्ध सामग्री प्रथमदृष्टया आरोपों को समर्थन करते हैं।
इस आधार पर कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के एक मामले का हवाला देते हुए स्पष्ट किया कि अभियोजन वापसी तभी संभव है, जब यह वास्तव में न्याय और लोकहित में हो, न कि आरोपियों को बचाने के लिए। इसके अलावा वर्ष 2020 से लंबित सत्र वाद को छह माह के भीतर पूरा करने का निर्देश दिया।
