मुनीर नियाज़ी

इतने ख़ामोश भी रहा न करो

इतने ख़ामोश भी रहा न करो ग़म जुदाई में यूँ किया न करो ख़्वाब होते हैं देखने के लिए उन में जा कर मगर रहा न करो कुछ न होगा गिला भी करने से ज़ालिमों से गिला किया न करो उन से निकलें हिकायतें शायद हर्फ़ लिख कर मिटा दिया न करो अपने रुत्बे का …
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फूल थे बादल भी था और वो हसीं सूरत भी थी

फूल थे बादल भी था और वो हसीं सूरत भी थी दिल में लेकिन और ही इक शक्ल की हसरत भी थी जो हवा में घर बनाए काश कोई देखता दश्त में रहते थे पर ता’मीर की आदत भी थी कह गया मैं सामने उस के जो दिल का मुद्दआ’ कुछ तो मौसम भी अजब …
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मेरे जिस्म में ज़हर है तेरा

मेरे जिस्म में ज़हर है तेरा मेरा दिल है तेरा घर तू मौजूद है साथ हमेशा ख़ौफ़ सा बन कर शाम-ओ-सहर तेरा असर है मेरे लहू पर जैसे चाँद समुंदर पर इतनी ज़र्द है रंगत तेरी जम जाती है उस पे नज़र तू है सज़ा मिरे होने की या है मेरा ज़ाद-ए-सफ़र करेगा तू बीमार …
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ये उन की याद में होगी..

सितारे जो दमकते हैं किसी की चश्म-ए-हैराँ में मुलाक़ातें जो होती हैं जमाल-ए-अब्र-ओ-बाराँ में ये ना-आबाद वक़्तों में दिल-ए-नाशाद में होगी मोहब्बत अब नहीं होगी ये कुछ दिन बा’द में होगी गुज़र जाएँगे जब ये दिन ये उन की याद में होगी मुनीर नियाज़ी
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आ गई याद शाम ढलते ही…

आ गई याद शाम ढलते ही बुझ गया दिल चराग़ जलते ही खुल गए शहर-ए-ग़म के दरवाज़े इक ज़रा सी हवा के चलते ही कौन था तू कि फिर न देखा तुझे मिट गया ख़्वाब आँख मलते ही ख़ौफ़ आता है अपने ही घर से माह-ए-शब-ताब के निकलते ही तू भी जैसे बदल सा जाता …
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