खंडहर बता रहे हैं इमारत कभी बुलंद थी…

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Published By Anjali Singh
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लगभग 200 वर्षों से गुलाब की पंखुड़ियों की उसी खुशबू के बीच खंडहर बनी वह इमारत मौजद है, जो बता रही है कि इमारत कभी बुलंद थी। उस राजधानी में जहां सुपर स्पेशलिस्ट डॉक्टरों की कमी नहीं, वहां चुनिंदा हकीम आज भी तमाम मरीजों की सांसें थाम उन्हें जिंदगी दे रहे हैं।  हां ! वही हकीम जो इस्लामी स्वर्ण युग के दौरान विद्वानों की श्रेणी में आते थे। ऐसे विद्वान जो धर्म, चिकित्सा, विज्ञाान और इस्लामी दर्शन के जानकार थे। उसी यूनानी चिकित्सा पद्धति को विरासत में पाने वाले कुछ हकीम अब भी हैं, जिसकी नींव 460 ईसा पूर्व ग्रीस में यूनानी दार्शनिक हिप्पोक्रेट्स ने रखी थी। इन हकीमों से मिलना है तो लखनऊ में चौक के शोर-शराबे और संकरी गलियों से होते हुए दारुलशफा तक पहुंचना होगा। यहां दशकों पुराना एक जर्जर भवन पर लगा बोर्ड दिखेगा, जिस पर लिखा है किंग्स यूनानी हॉस्पिटल, गोल दरवाजा चौक। यही है शाही यूनानी शिफाखाना।  -रिपोर्ट:  शुभंकर

इमारत पर बदलते दौर के निशान हावी

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आज इमारत पर बदले दौर के निशान हावी हैं। यहां की टूटी दीवारें और जंग खा चुका साइनबोर्ड संस्थान की ऐतिहासिक महत्ता की कहानी बयां करता है। अंदर चुनिंदा हकीम आज भी मात्र तीस रुपये के पर्चे पर परामर्श के साथ औषधियां भी देते हैं। मौके पर पहुंचिए तो हकीम सय्यद जैनुअल हसन और हकीम सय्यद अहमद मेंहदी यहां बैठे मिलेंगे। एक हकीम-ए-अव्वल हैं तो दूसरे हकीम-ए-दोयम यानी सीनियर और जूनियर हकीम साहब। इनके एक सहायक इस्लाम भी यहां दवाओं के वितरण का काम करते हैं। हालांकि यहां आने वाले मरीज कम हैं, फिर भी कई मरीज पुरानी बीमारियों के इलाज के लिए आते हैं। मर्ज के लिहाज से इन हकीमों द्वारा बताईं गईं सभी दवाइयां एक विशेषज्ञ टीम द्वारा तैयार की जाती हैं, जो दशकों से इस यूनिट से जुड़े हुए हैं। सभी औषधियां गुलाब, ताजी जड़ी-बूटियों और प्राकृतिक औषधियों से तैयार होतीं है, बाजार में मिलने वाली कोई भी रेडीमेड दवा नहीं प्रयोग नहीं होती।

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गरीबों के इलाज के लिए इस चिकित्सा इकाई की स्थापना 1832 में राजा नसरुद्दीन हैदर बहादुर ने की थी। यानी सात वर्षों के बाद इस यूनानी पद्धति के अस्पताल को स्थापित हुए पूरे 200 साल हो जाएंगे। इसी जर्जर इमारत तले आज भी न केवल मरीजों को हकीम उचित चिकित्सीय परामर्श देते हैं, बल्कि यहीं निर्मित दवाएं भी। इन्हीं यूनानी औषधियों में गुलाब की पंखुड़ियों का प्रयोग होता है, जो यहां बिखरी पड़ी दिखेंगी, जिनकी रूहानी खुशबू तनमन को तरोताजा कर देती है। दरअसल यूनानी चिकित्सा पद्धति खासकर इस्लामी देशों में फली-फूली, फिर भी अवध के नवाबों के शासनकाल में यह लखनऊ पहुंची और शहर की पहचान का अभिन्न अंग बन गई। जब अन्य लोग इससे विमुख हो गए, तब भी नवाबों ने इस प्राचीन परंपरा को संरक्षण देना जारी रखा। अभिलेखों से पता चलता है कि अंतिम नवाब, वाजिद अली शाह, शाही चिकित्सकों की एक टीम रखते थे, जो यूनानी चिकित्सा पद्धति का अभ्यास करते थे। यह वह समय था जब यूरोपीय चिकित्सा पद्धति दुनियाभर में अपनी जगह बना रही थी। यह विरासत 20 वीं सदी तक जारी रही और यूनानी चिकित्सा पद्धति जन स्वास्थ्य के लिए केंद्रीय बनी रही।

लखनऊ में शाही शिफाखाना यहां के चौक इलाके के बीचों-बीच स्थापित अवध की शाही विरासत का एक प्रतीक है। एकबारगी यह कोई आम सरकारी क्लीनिक या किसी पुराने हकीम का दवाखाना लग सकता है, लेकिन जो लोग इसके इतिहास को जानते हैं, उनके लिए यह नवाबों के प्रगतिशील नजरिए का प्रतीक है। राजा नसीरुद्दीन हैदर द्वारा 1833 में स्थापित, शिफाखाना उस वक्त का आधिकारिक शाही अस्पताल था। राजा ने इसे यूनानी चिकित्सा के केंद्र के रूप में स्थापित किया था, जो यूनानी-अरबी चिकित्सा पद्धति थी, जिसने भारतीय उपमहाद्वीप में गहरी जड़ें जमा रखीं थीं। तीन प्रशिक्षित हकीमों की एक टीम जनता की सेवा करती थी। इलाज न केवल मुफ्त था, बल्कि सम्मान के साथ भी किया जाता था। सभी वर्गों के मरीजों को समान स्तर की देखभाल प्रदान की जाती थी। इस सुविधा में गहन या दीर्घकालिक उपचार की आवश्यकता वाले मरीजों के लिए भर्ती वार्ड भी शामिल थे। अस्पताल के आसपास के बगीचे में औषधीय जड़ी-बूटियां उगाई जाती थीं और इसके अपने दवाखाना (फार्मेसी) में दुर्लभ औषधियां तैयार की जाती थीं।

बाद के दिनों में लखनऊ उत्तर भारत के कलात्मक और बौद्धिक जीवन का केंद्र बनकर उभरा। अवध के नवाबों ने इस बदलाव को अपनाया और कवियों, कलाकारों, संगीतकारों और हकीमों को आमंत्रित किया। शिफाखाना शीघ्र ही चिकित्सा शिक्षा का केंद्र बन गया। यूनानी चिकित्सा के इच्छुक चिकित्सक यहां वरिष्ठ हकीमों के अधीन प्रशिक्षण लेते थे और निदान, औषध विज्ञान और समग्र चिकित्सा में अनुभव प्राप्त करते थे। निदान में नाड़ी-परीक्षण, नेत्र परीक्षण और सावधानीपूर्वक पूछताछ शामिल थी। उपचार में जोशांदा (जड़ी-बूटियों का काढ़ा), कुर्स (गोलियां) और अर्क (आसुत) शामिल थे, जो अक्सर रोगी की शारीरिक संरचना या मिजाज के अनुसार विशेष रूप से तैयार किए जाते थे। समय के साथ अस्पताल का स्टाफ कम होता गया और इसके समृद्ध अभिलेखागार और फार्मेसी की उपेक्षा की गई। फिर भी यह कभी बंद नहीं हुआ। वर्षों के राजनीतिक उथल-पुथल, सत्ता परिवर्तन और स्वास्थ्य सेवा के बदलते रुझानों के बावजूद, शाही शिफाखाना चुपचाप लोगों की सेवा करता रहा।