हाईटेक हुआ चुनाव : अब नहीं दिखते पुराने तरीके, न ढोल मजीरा न चुनावी गीतों की बहार
नये दौर में विज्ञान व तकनीकी प्रभाव से बदला चुनाव लड़ने व प्रचार का तरीका, चुनाव जंग नहीं, राजनीतिक उत्सव की तरह मनाएं लोकतंत्र का पर्व
विनोद श्रीवास्तव,अमृत विचार। दौर बदला तो राजनीतिक फिजा में चुनाव प्रचार के तरीके भी नए हो गए। आधुनिक तनावपूर्ण जीवन शैली, भविष्य संवारने की जद्दोजहद में अपना गांव, घर छोड़कर परदेश कमाने में जिंदगियां खासकर युवा वर्ग मशगूल हो गया। जिससे महानगरों की तो बात ही दूर है गांव देहात का परिदृश्य भी लगभग बदल गया है।
प्रचार में ढोल मजीरा लेकर चुनावी गीत गाते हुए महिलाओं, पुरुषों की टोलियों का दर्शन अब पुराने जमाने की बात हो गई है। उसकी जगह एंड्रॉयड और स्मार्ट मोबाइल ने ले ली है। चुनावी तापमान सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर घट-बढ़ रहा है। इसीलिए तो राजनीतिक दलों, मीडिया घरानों का झुकाव भी अपने सोशल प्लेटफार्म पर अधिक है। 80-90 के दशक तक लोकतंत्र के उत्सव में टोलियां ढोल मजीरा बजाते हुए चुनावी रंग में रंग जाते थे। घरों व गलियों में हमरे लाल के यह चुनाव निशान गीत गाकर वोट देने को प्रेरित करते थे। लेकिन, तकनीकी दौर में सब अंदाज व ढंग बदलने से चुनाव का रंग केवल टीवी, मोबाइल स्क्रीन और लैपटाप तक सिमट कर रह गया है।
आयोग की सख्ती भी बनी कारण
चुनाव प्रचार के तरीके बदलने की प्रमुख वजह में से एक चुनाव आयोग की सख्ती भी है। निर्वाचन आयोग की सख्ती से न तो कहीं चुनाव प्रचार सामग्री दिखती है और न दीवारों पर चुनावी नारों का लेखन। यहां तक कि चौक-चौराहे व चाय की दुकानों पर पहले की तरह लोग खुलकर चर्चा करने से भी बचते हैं। युवा वर्ग तो केवल सोशल मीडिया पर चुनावी रंग में डूबा रहता है।
मतदाताओं के मन की बातें
अब नहीं रहा पहले जैसा चुनावी रंग, आत्मीयता की जगह तकनीक हावी
अब लोकसभा चुनाव हो या विधानसभा, प्रचार का पुराना तरीका बदल गया है। पहले ढोल मजीरा लेकर पुरुषों, महिलाओं की टोलियां गली मोहल्लों में घर-घर प्रचार करती थीं। मन में सबके आत्मीयता भी थी, लेकिन अब हर कीमत पर चुनाव जीतने की जिद रिश्तों में विष घोल रही है, लोग सार्वजनिक रूप से कुछ कहने से बच रहे हैं। रही सही कसर सोशल मीडिया साइट्स ने पूरी कर दी, जब प्रचार इसी पर हो जा रहा है। हालांकि पहले जैसा हंसी खुशी का माहौल न होना अब टीसता है।-मिथलेश शर्मा, सेवानिवृत्त शिक्षिका
पहले प्रचार व मतदान मेला जैसा लगता है, अब है सूनापन
64 वर्ष की उम्र हो गई। जब से मताधिकार की उम्र हुई तब से हर चुनाव में मतदान किया। लेकिन, अब चुनाव का रंग फीका है। आम चुनाव उत्सव न होकर औपचारिकता बन गया है। पहले गली-मोहल्लों में प्रचार के लिए टोलियां निकलती थीं। लोग प्रचार में भी वैमनस्यता का भाव नहीं रखते थे। हंसी ठिठोली के बीच उल्लास में रहते थे। वोट देने के लिए भी लोग समूह में जाते थे। बूथ पर कई पीढ़ियों का मेल होता था, लेकिन मोबाइल ने अब सब कुछ बदल दिया है। चुनाव का माहौल पहले जैसा नहीं रहा, सूनापन लगता है।-रानी देवी, लाइनपार
मोबाइल ने लील ली चुनाव प्रचार की खुशी
प्रचार करने का तरीका बदलने से पता नहीं चलता कि चुनाव चल रहा है। बच्चे और नौजवान मोबाइल व लैपटॉप पर चुनाव प्रचार कर व देख रहे हैं। हमारे समय में मोहल्लों से जब प्रचार शुरू होता था, तो सभी घरों से एक-एक व्यक्ति निकलकर आते थे। जैसे-जैसे मोहल्ले बढ़ते जाते थे भारी संख्या में भीड़ इकट्ठा होती थी। अपने प्रत्याशी और पार्टी जिंदाबाद के नारे लगाए जाते थे। चौपाल पर जाकर सभी से बात की जाती थी। उसी को सभी लोग वोट देते थे।-बृजपाल गुप्ता, छतरी वाला कुआं, पाकबड़ा
गाते बजाते होता था प्रचार, अब पसरा है सन्नाटा
पहले के जमाने में चुनाव प्रचार का अंदाज अलग था। आज जैसी उदासी नहीं। पहले चुनाव आयोग की सख्ती भी ऐसी नहीं थी। उस समय ढोल नगाड़े, मजीरा लेकर गाते बजाते प्रत्याशी का प्रचार करते थे। भारी संख्या में भीड़ इकट्ठा होती थी। प्रत्याशी सबके सामने वोट की अपील करते थे। आसपास के गांव में भी जिसके पास जो वाहन होता था उससे ही प्रचार करते थे। पहले चुनाव प्रचार का एक साधन गल्ला समिति हुआ करती थी। सभी लोग वहां से खाद लेने आते थे वहीं चर्चा होती थी।-ऋषिपाल सिंह, मोहल्ला पश्चिमी ठाकुरान, पाकबड़ा
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