मेरा शहर मेरी प्रेरणा : जरी-जरदोजी...सलमा-सितारों की झिलमिल चुनरिया

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Published By Monis Khan
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बरेली। बरेली परंपरागत रूप से जरी-जरदोजी का गढ़ रहा है। यहां बहुत बड़े पैमाने पर जरी का काम होता रहा है। यह उद्योग शहर की अर्थव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है जिसमें तीन से चार लाख लोग काम करते हैं। रेशम, कटदाना मोती, कोरा कसाब, तार, नक्शी, नग, मोती, ट्यूब, चनाला, जरकन नोरी, पत्तियां, दर्पण जब किसी कपड़े पर टांके जाते हैं तो मुंह से वाह-वाह निकलता है।

जरी जरदोजी के कपड़ों में लहंगे, सूट, साड़ी और गाउन के अलावा सोफों के कवर, कुशन, फ्रिज कवर, जूतियां शामिल हैं, जो स्थानीय और राष्ट्रीय स्तर के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय बाजारों में भी बेचे जाते हैं।  जरी की कढ़ाई वाले सूट, साड़ियों की मांग दिल्ली, जयपुर, हैदराबाद और पंजाब में सर्वाधिक हैं। अमेरिका, अरब देशों समेत यूरोप के भी कुछ देशों में भी इसकी मांग है।

घर-घर हो रहा काम

जरी-जरदोजी का काम बरेली शहर के साथ आसपास के गांवों और कस्बों में बड़ी संख्या में होता है। बरेली में खासकर पुराना शहर इसका केंद्र है। मोहनपुर ठिरिया, फतेहगंज पश्चिमी, फरीदपुर, बहेड़ी, नवाबगंज में भी बड़ी संख्या में लोग इस काम से जुड़े हैं। पुराना शहर में हजारों घरों में पूरा परिवार अड्डे पर कारचोबी करता दिखाई देता है। घर के कामों से निपटने के बाद महिलाएं-युवतियां इस काम में जुट जाती हैं और परिवार को आर्थिक संबल देती हैं। जरी-जरदोजी महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने में बहुत बड़ी भूमिका निभा रही है।

यूं होता है जरी का काम

कपड़े कोे कढ़ाई के लिए लकड़ी के एक फ्रेम में फिट करते हैं। इसे अड्डा कहा जाता है। कढ़ाई हुक जैसी नोक वाले सुआ या आरी से होती है। दाना, मोती, कटदाना, सलमा, सितारा, दबका, बड़े ध्यान से लगाने पड़ते हैं। कारीगर इतने हुनरंमंद हो जाते हैं कि उनकी उंगलियां रेशम, सलमा-सितारों से खेलती लगती हैं। इसके बावजूद नजर हटी और दुर्घटना घटी वाली स्थिति होती है। इतना बारीक काम है कि कारीगरों की आंखों पर समय से पहले चश्मा लग जाता है।

मशीनों ने बढ़ाई मुश्किल
कलीम खां कहते हैं कि पैटर्न बदल रहा है जिसका असर कारोबार पर पड़ा है। कंप्यूटर से डिजाइन और मशीनों से कढ़ाई ने मुश्किलें खड़ी कर दी हैं। इससे अड्डों में बहुत कमी आई है जिससे रोजी-रोटी प्रभावित हुई है। वह कहते हैं कि पशमीना शॉल पर जरी की कढ़ाई होती है। एक शॉल की कीमत 30 हजार रुपये तक है। कारीगर को भी अच्छा पैसा मिलता है लेकिन ये शाल आम चलन में नहंी है इसलिए बहुत लाभ नहीं। ऐसे ही कुछ अन्य कपड़े भी हैं जिनसे हमें अच्छा लाभ हो सकता है लेकिन आम लोगों की पहुंच से बाहर होने के कारण हमें आर्डर नहीं मिलते। वह कहते हैं कि जरदोजी के काम में आने वालें कच्चे माल की बढ़ रही कीमतों से भी परेशान हैं। इसके मुकाबले तैयार माल की कीमत में कोई खास बढ़त नहीं हुई।

दूसरे काम तलाश रहे कारीगर
जरी के काम में उस्ताद यूसुफ कारीगर निराशा जाहिर करते हैं। वह कहते हैं कि पहले जरी का काम घर-घर होता था। कोई चार सेे पांच लाख लोग इस काम में लगे थे। पूरा परिवार अड्डे पर बैठा दिखाई देता था। लेकिन अब वैसे हालात नहीं। अब साड़ियों की मांग कम हुई है। महिलाएं सूट या गाउन पहनती हैं। वैवाहिक आयोजन में लहंगा का चलन है। वे भी मशीनों से तैयार होने लगे हैं। लिहाजा कारोबार पर असर पड़ा है। दिन भर में 300 से 400 रुपये तक अडृ्डा उतार पाते हैं। इससे घर कैसे चलेगा। बड़ी संख्या में कारीगर ऑटो चलाने लगे या दूसरे काम कर रहे हैं। घरों में महिलाओं के जिम्मे ये काम हो गया है, ज्यादातर पुरुष दूसरे काम करने लगे। यहां के कारीगर अब पंजाब, दिल्ली समेत दूसरे शहरों में काम कर रहे हैं।

जरी के काम में सबसे महत्वपूर्ण खाका
जरी के काम में सबसे महत्वपूर्ण होता है खाका। बटर पेपर पर डिजाइन तैयार कर कपड़े पर छापा जाता है इसके बाद कढ़ाई शुरू की जाती है। खाका कारीगर राजू भाई कहते हैं कि बटर पेपर पर पंेसिल से डिजाइन बनाते हैं। इस डिजाइन को पिन या सुई से छेद कर लेते हैं। इसके बाद खाका को अड्‌डे पर लगे कपड़े पर छाप लेते हैं। छापने के लिए खड़िया, मिट्टी के तेल का घोल बनाते हैं। वह कहते हैं कि कंप्यूटर डिजाइन ने मुश्किलें बढ़ाई है। लोग कंप्यूटर से ही डिजाइन का प्रिंट निकलवा लेते हैं। हालांकि बरेली में अभी कंप्यूटर से प्रिंट निकलवाने का काम उतना ज्यादा नहीं है। फिर भी असर पड़ा है।

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