यहां गुरु नानक देव के इस चमत्कार को देखने देश-दुनिया से जुटते हैं श्रद्धालु, होती है हर मनोकामना पूरी
नानकमत्ता साहिब सिक्खों का पवित्र तीर्थ स्थान है। यह स्थान उत्तराखंड के उधमसिंह नगर जिले के नानकमत्ता नामक नगर में स्थित है। यह पवित्र स्थान सितारगंज-खटीमा मार्ग पर सितारगंज से 13 किमी और खटीमा से 15 किमी की दूरी पर स्थित है। सिक्खों के प्रथम गुरु नानक देव जी ने यहां की यात्रा की थी। …
नानकमत्ता साहिब सिक्खों का पवित्र तीर्थ स्थान है। यह स्थान उत्तराखंड के उधमसिंह नगर जिले के नानकमत्ता नामक नगर में स्थित है। यह पवित्र स्थान सितारगंज-खटीमा मार्ग पर सितारगंज से 13 किमी और खटीमा से 15 किमी की दूरी पर स्थित है। सिक्खों के प्रथम गुरु नानक देव जी ने यहां की यात्रा की थी। इसलिए इस स्थान का बड़ा महत्व है।

नानकमत्ता का पुराना नाम सिद्धमत्ता है। सिखों के प्रथम गुरु नानकदेव जी अपनी कैलाश यात्रा के दौरान यहां रुके थे और बाद में सिखों के छठे गुरु हरगोविन्द साहिब भी यहां आए। गुरु नानकदेव जी 1508 में अपनी तीसरी कैलाश यात्रा, जिसे तीसरी उदासी भी कहा जाता है, के समय रीठा साहिब से चलकर भाई मरदाना जी के साथ यहां रुके थे।
जानकार बताते हैं कि उन दिनों यहां जंगल हुआ करते थे और गुरु गोरक्षनाथ के शिष्यों का निवास था। गुरु शिष्य और गुरुकुल के चलन के कारण योगियों ने यहां गढ़ स्थापित किया था जिसका नाम गोरखमत्ता था। कहा जाता है कि यहां एक पीपल का सूखा वृक्ष था, जब गुरु नानक देव यहां रुके तो उन्होंने इसी पीपल के पेड़ के नीचे अपना आसन जमा लिया। कहते हैं कि गुरु जी के पवित्र चरण पड़ते ही यह पीपल का वृक्ष हरा-भरा हो गया। यह सब देख कर रात के समय योगियों ने अपनी योग शक्ति से आंधी तूफान और बरसात शुरू कर दी। तेज तूफान और आंधी से पीपल का वृक्ष हवा में ऊपर उठने लगा, यह देखकर गुरु नानकदेव जी ने इस पीपल के वृक्ष पर अपना पंजा लगा दिया जिसके कारण वृक्ष यहीं पर रुक गया। आज भी इस वृक्ष की जड़ें जमीन से 10-12 फीट ऊपर देखी जा सकती हैं। वर्तमान समय में इसे पंजा साहिब के नाम से जाना जाता है।

गुरुद्वारे के अंदर एक सरोवर है, जिसमें श्रद्धालु स्नान करते हैं और फिर गुरुद्वारे में मत्था टेकने जाते हैं। इसमें रंग बिरंगी मछलियां भी देखी जा सकती है। कहते हैं गुरु नानक देव जी के इस पवित्र धाम में आकर कोई भी फरियादी खाली हाथ नहीं लौटता। कहा जाता है कि गुरु नानक जी के यहां से चले जाने के बाद सिद्धों ने इस पीपल के पेड़ में आग लगा दी और पेड़ को अपने कब्जे में लेने का प्रयास किया। उस समय बाबा अलमस्त जी यहां के सेवादार थे। उन्हें भी सिद्धों ने मार-पीटकर भगा दिया। सिक्खों के छठे गुरु हरगोविन्द साहिब जी को जब इस घटना की जानकारी मिली तब वे यहां आए और केसर के छींटे मार कर इस पीपल के वृक्ष को दोबारा हरा-भरा कर दिया। आज भी इस पीपल के प्रत्येक पत्ते पर केशर के पीले निशान देखे जा सकते हैं।
